________________
श्रमण संस्कृति की स्वतंत्रता के द्योतक ४२ बिंदु...
( श्रमण संस्कृति अर्थात् जैनधर्म वैदिक संस्कृति अर्थात् हिंदुधर्म से सर्वथा भिन्न, स्वतंत्र व सनातन धर्म है )
- पं. तनसुखलालजी काला, नांदगाँव (नासिक)
(पंडितजी श्री तनसुखलालजी काला के चिंतन से निःसृत ऐतिहासिक, सैद्धांतिक, पुरातात्त्विक, दार्शनिक, पौराणिक साक्ष्यों एवं इतिहासज्ञों व बद्धिजीवियों के मंतव्यों के आश्रय से संकलित ४२ बिंदु, जिनके कि आधार से सहज ही सिद्ध किया सकता है कि जैन धर्म किसी भी अन्य धर्म की शाखा या उपशाखा नहीं, अपितु नितांत स्वतंत्र व सनातन धर्म है ॥
इन्हीं ४२ बिंदुओं का विस्तार निश्चित ही न्यायशास्त्र के स्वतंत्र ग्रंथ का रूप ले सकता है । जैसा कि पूर्व के लेख में निर्देश दिया गया था, उसी अनुसार इन बिंदुओं को पंडितजी द्वारा षट्दर्शन पारंगत महामना विद्वान प्रधानमंत्री पं. जवाहरलालजी नेहरू के समक्ष आचार्य श्री के मत को निर्दोष सिद्ध करने व उन्हीं के द्वारा केन्द्र सरकार से जैन-धर्म को स्वतंत्र धर्म के रूप में मान्यता दिलवाने हेतु स्मृति में क्रमवार सूत्र रूप रखने के लिये तैयार किया गया था । मात्र बिंदुओं को ही तैयार नहीं किया गया था, अपितु इन बिंदुओं से संबंधित साहित्य का भी परिश्रम पूर्वक संकलन कर २५ जनवरी १९५० को प्रधानमंत्री कार्यालय ले जाया गया था । पाठकों के सद् बोधार्थ इन बिंदुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है | )
(१) मत की समीचीनता का उद्योत करने वाले न्याय ग्रंथों की अपेक्षा :प्रमेय कमलमार्तंड, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, न्यायविनिश्चयालंकार, प्रमेयरत्नमाला, न्यायदीपिका, न्यायकुमुदचंद्रोदय आदि जैनों के न्यायशास्त्र हैं, जिनमें हिंदुओं की मान्यताओं का सर्वथा खंडन किया गया है। हिंदुओं के न्यायशास्त्र जुदे हैं। उनके रचयिता भी जुदे हैं।
(२) शब्दानुशासन को दर्शाने वाले व्याकरण शास्त्रों की अपेक्षा :- शाकटायन व्याकरण, जैनेंद्र व्याकरण शब्दार्णवचंद्रिका, शब्दानुशासन, कातंत्र रूपमाला आदि जैनों के व्याकरण शास्त्र हैं। हिंदुओं के व्याकरणशास्त्र व उनके रचयिता जुदे हैं।
(३) साहित्य संरचनाओं की विधा की अपेक्षा :- काव्य, चंपू, नाटक, अलंकार आदि साहित्य ग्रंथ भी जैनों तथा हिंदुओं के जुदे हैं।
(४) अनुयायियों द्वारा मान्य धार्मिक ग्रंथों की अपेक्षा :- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि शास्त्र भी जैनों के हिंदुओं से सर्वथा भिन्न हैं। (५) लौकिक साहित्य की अपेक्षा :- ज्योतिष और गणित शास्त्र भी दोनों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org