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५७५ बम्बई हायकोर्ट के आदेश का हिंदी अनुवाद उसी रूप में खोल दिया जायेगा जैसे कि वह हिन्दू समाज अथवा उसके किसी भी समुदाय के लिये खुला होगा। और हरिजनों को किसी भी पवित्र तालाब, कुएं, स्त्रोत अथवा जलधारा में स्नान करने और उसका उपयोग करने का वैसा और उसी रूप में अधिकार प्राप्त होगा जैसा कि हिन्दू समाज और उसके किसी भी वर्ग को प्राप्त है।" ___ एडवोकेट जनरल की मंशा यह है कि कानून की उक्त धारा में "हिन्दू" शब्द की जो व्याख्या की गई है, उसे इस (हरिजनों को दिये गये अधिकार की) धारा में शामिल करना चाहिये और उस व्याख्या को इसधारा में शामिल करने के बाद हमें उसका यह अर्थ करना चाहिये कि हरेक मन्दिर, चाहे वह हिन्दुओं का हो या जैनों का, वह हिन्दूसमाज के हर सदसय के लिये खोल दिया गया है, जिसका अभिप्राय जैन समाज और हिन्दू समाज के सभी सदस्यों से है।
(एडव्होकेट जनरल की) इस मंशा को स्वीकार करना असंभव है। यदि इस मंशा को स्वीकार कर लिया जावे, तो हमारी सम्मति में इसका परिणाम यह होगा कि व्यवस्थापिका (धारा सभा) ने इस व्यवस्था या कानून से वेसबभेद और अन्तर एकदम मिटा दिये अथवा खत्मकर दिये हैं जो हिन्दू और जैन में है । क्या इस कानून का उद्देश्य यही था कि इस भेद या अन्तर को मिटा दिया जाय?
जैसा कि मैंने पहले कहा है कि इस कानून का उद्देश्य बहुत ही सीमित अर्थात् मर्यादित है। (वह सीमा अथवा मर्यादा यह है कि) वह उद्देश्य कितना ही पवित्र है अथवा हो सकता है ? वह सीमित (पवित्र) उद्देश्य यह है कि :- हरिजनों के सामाजिक धरातल को उंचा किया जाय और उनको मंदिर प्रवेश के सम्बन्ध में उच्च हिन्दुओं के समान स्थिति में लाय जाय। (निश्चित ही) इस कानून का उद्देश्य हिन्दू और जैन मन्दिरों में विद्यमान भेद या अन्तर को मिटाना नहीं है।
यह सुविदित है कि जैन हिन्दुओं से भिन्न धर्म के हैं और अपने धार्मिक विश्वासों में वे अनेक महत्वपूर्णमामलों में हिन्दुओं से मतभेद रखते हैं। वेवेदों को प्रमाण नहीं मानते और नवे इस विचार के हैं कि कर्मकांड तथा (पशु) बलिदान का कोई धार्मिक महत्व है।
जैनोंकाइस बारे में भी हिन्दुओं सेभेद है कि वे अपने उन संतों के प्रति जिन्हें कि तीर्थंकर कहा जाता है, जो किजैनों केमतानुसार क्रमशः परमात्मपद को प्राप्त कर लेते हैं, सर्वोच्च श्रद्धा रखते हैं (भगवानदासतेजमल बनामराजमल १०बी.एस.जी. आर. ३४१, २५१, के अनुसार)।
यह सच है कि जहाँ कोई रिवाज याव्यवहार (हिन्दुओंवजैनियों में) विपरीत नहीं मिलता, वहाँ अदालतों के फैसले के अनुसार जैनों पर हिन्दू कानून लागू होता है, फिर भी उनके पृथक् और स्वतन्त्र समाज के अस्तित्व के बारे में जिस पर कि उनके अपने धार्मिक विचारों और विश्वासों की व्यवस्था लागू होती है, कोई विवाद नहीं किया जा सकता, इसलिये भले ही एडवोकेट जनरल के कहने के अनुसार यह संभव हो और भले ही वांछनीय भी क्यों न हो कि जैनों को सभी कानूनी और सामाजिक मामलों में हिन्दुओंकेसमानही समझाजाता है, अतः दोनों के धर्मभीएकही समझे जायें, व्यावहारिक नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट है कि इस कानून को स्वीकार करने का राज्य की (संविधान बनाने वलागू करने वाली) धारा सभा का उद्देश्य ऐसा करना नहीं है कि दोनों धर्म एक ही समझे जायें। इसलिये हम एडवोकेट जनरल के इस दावेको स्वीकार करने से इनकार करते हैं कि कानून का मुख्य उद्देश्य
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