Book Title: Charitra Chakravarti
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 770
________________ ५८७ 1 इनके अतिरिक्त जैन वाङ्मय के महाबंध, कषायपाहुड़, मोक्षपाहुड़, समाधिशतक, इष्टोपदेश, पंचास्तिकाय दीपिका, जिनसहस्त्रनाम सदृश ग्रंथों का संपादन किया । अंग्रेजी भाषा में श्री दिवाकर जी ने रिलीजन एंड पीस, फिलासफी आफ वेजीटेरियनिज्म, महावीर लाइफ एण्ड फिलासफी, लार्ड पार्श्वनाथ, न्यूडिटी आफ जैन सेंट्स, ऐंटीक्विटी आफ जैनिज्म, इज जैनिज्म ए डिसटिंक्ट एंड सेपरेट रिलीजन आदि ग्रंथ लिखे हैं । इन ग्रंथों में से कईं हिन्दी ग्रंथों के कन्नड़ तमिल, मराठी, गुजराती भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं । आपके ही प्रयत्न एवं प्रभाव से दक्षिण भारत के मूड़बिद्री मठ से सर्व प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथराज 'महाधवल' (महाबंध) की प्राप्ति हुई, जिसका संपादन भी आपने ही किया । आचार्य शांतिसागर महाराज ने आपको संपूर्ण महाबंध के ताम्रपत्र पर उत्कीर्णन संबंधी संपादन कार्य सौंपा था । इस महान् कार्य की संपन्नता पर एवं अन्य सेवाओं को लक्ष्य में रख सोलापुर में आचार्य श्री के समक्ष आपको “धर्म दिवाकर" के पद से अलंकृत किया गया । इसी तरह भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा ने अपने गोहाटी (आसाम) में हुए अधिवेशन में जैन साहित्य और समाज के लिए की गई आपकी दीर्घकालीन सेवाओं के आधार पर “ विद्वत्रत्न" की उपाधि से विभूषित किया था तथा बाद में दिगम्बर जैन महासभा ने आपको अपना महनीय संरक्षक पद प्रदान किया, जिस पद पर वे जीवन के अंत समय तक रहे । देहावसान के कुछ ही माह पूर्व २५.१०.६३ को श्रवणबेलगोला में चारूकीर्ति भट्टारकजी ने श्री दिवाकरजी को "विद्यावारिधि" की उपाधि से समलंकृत कर रजतथाल प्रदत्त की थी । सन् १९७६ में जबलपुर नगर में बड़े महोत्सव केमध्य आपको विशाल 'अभिनंदन ग्रंथ' मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय न्यायाधीश श्री नवीनचंद्रजी द्विवेदी की अध्यक्षता में भेंट किया गया । 'अखिल भारतीय दार्शनिक परिषद' द्वारा १६८० में भारतवर्ष के सब धर्मों के दिग्गज विद्वानों और दार्शनिक मनीषियों के मध्य श्री दिवाकरजी को सम्मानपत्र भेंट किया गया । भगवान् महावीर के २५०० वे निर्वाणोत्सव समारोह के समय दिल्ली में पूज्य आचार्य विद्यानंदजी महाराज के सान्निध्य में श्री दिवाकरजी को उनके “चारित्र चक्रवर्ती” ग्रंथ के रचयिता के रूप में अभिनंदित किया गया। परम पूज्य आचार्य १०८ विद्यासागरजी महाराज के सागर चातुर्मास के अवसर पर दिगम्बर जैनाचार्य धरसेन के शिष्य आचार्य पुष्पदंत तथा आचार्य भूतबलि द्वारा प्रणीत कषायपाहुड़ एवं अन्यान्य सिद्धान्त ग्रंथों की हिन्दी माध्यम से धर्म की अपूर्व प्रभावना करने पर दिगम्बर जैन समाज, सागर व श्री गणेश दि. जैन सं. विद्यालय, सागर म.प्र. द्वारा दिनांक १७.६.८० श्रुतपंचमी को श्री दिवाकरजी को रजतपत्र प्रदत्त कर सम्मानित किया था । आचार्य विद्यासागरजी महाराज, आचार्य बाहुबलीजी महाराज आदि सभी निर्ग्रथ साधुओं का शुभाशीर्वाद प्राप्त होता रहा है। चारित्र, विद्वता और भक्ति का संगम श्री दिवाकरजी के जीवन में था । अपने पवित्र जीवन की स्वर्णिम संध्या में भी आप निरंतर अध्ययन एवं लेखन में व्यस्त रहे और पूर्ण सावधानीपूर्वक महामंत्र णमोकार का श्रवण-मनन करते हुए दिनांक २५ जनवरी १६६४ को देह का त्याग किया। एक अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी के रूप में अपार अध्ययन व अनुभव में अनुप्राणित आपकी अभिव्यक्तियाँ समाज के लिए सदैव प्रकाशस्तंभ सदृश रहेंगी। स्व. श्री दिवाकरजी की धर्म, समाज और साहित्य सेवा के लिए समाज सदैव ऋणी रहेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org

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