________________ परीक्षा प्रधानी विद्धतगण शौर 'चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, मौरेना (म.प्र.), आचार्यश्री के विषय में लिखे अपने लेख में आचार्य श्री की प्रज्ञा की तुलना भगवन् जिनसेनाचार्य जी द्वारा श्री आदि पुराण के पर्व 41 में भरतचक्रवर्ती की व्याख्यायित प्रज्ञा से करतेहुए कहते हैं कि - राजसिद्धांततत्त्वज्ञोधर्मशास्त्रार्थतत्त्ववित्। परिख्यातः कलाज्ञानेसोऽभून्मूनि सुमेधसाम्॥१५४|| अर्थ : वह राज विद्या के सब तत्वों को जानताथा, धर्मशास्त्रों के तत्वों का जानकार था और कलाओं के ज्ञान में वह प्रसिद्ध था, इस प्रकार वह बुद्धिमान् लोगों के मस्तक पर सुशोभित होताथा अर्थात् सबमें मुख्यथा / / 154|| ऐसी ही विशाल प्रज्ञा श्री 108 आचार्य शांतिसागरकी है। इसमें जरा भी संदेह नहीं है / / / अनेकों ने अनेक बार आजमा लिया है / / और अब भी यह सौ टंच का सुवर्ण परीक्षा के लिये प्रत्यक्ष सज्ज है। मध्य कलियुग में यह एक मनुही अवतरा है, जो संपूर्ण धर्मसृष्टि को इस युग में फिर से निर्माण करेगा।।(आचार्य श्री शांतिसागर महामुनि का चरित्र, संस्करण : सन् 1934, पृष्ठ-११७.) यह तो आचार्य श्री के प्रज्ञाधन की चर्चा हुई, किंतु परीक्षा प्रधानियों द्वारा की गई परीक्षा का एक और उदाहरण हम देना चाहेंगे / / यह उदाहरण कटनी (म.प्र.) का है, सुनिये-- कुछ शास्त्रज्ञों ने सूक्ष्मता सेआचार्य श्री के जीवन कोआगम की कसौटी पर कसते हुए समझने का प्रयत्न किया। उन्हें विश्वास था कि इस कलिकाल के प्रसाद से महाराज का आचरण भी अवश्य प्रभावित होगा, किन्तु अन्त में उनको ज्ञात हुआ कि आचार्य महाराज में सबसे बड़ी विशेषता सबसे बड़ी बात यही कही जा सकती है कि वे आगम के बंधन में बद्ध प्रवृत्ति करतेहैं, अपने मन के अनुसार स्वछंद प्रवृत्ति नहीं करते। (लेखक : पं. सुमेरुचंद्रजी दिवाकर, चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण 1667, पृष्ठ : 187, उपशीर्षक- आगमभक्त, मूल शीर्षक- प्रभावना). उपर्यताविवेचा द्वारा लिखित शोधपूर्ण लेख चारित्र चक्रवर्ती - एक अध्ययन से लिया गया है। पटों में से पृष्ठ त्रेषठ पर हेमन्त्रालय Por stivale s Persohal Usedo Jain Education Internationa