Book Title: Charitra Chakravarti
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 761
________________ श्री शांतिसागर चारित्र (आचार्य श्री द्वारा दीक्षित महान विद्वान व तपस्वी साधुराज मुनिवर्य कुंथुसागरजी द्वारा संस्कृत भाषा में सन् १९३७ में लिखे गये आचार्य श्री के चारित्र-ग्रंथ के कुछ अंश) नमस्कृत्य जिनं शान्तिं सूरिं श्रीशान्तिसागरम्। वैराग्यवर्द्धकं वक्ष्ये गुरुवर्यचरित्रकम् ।।१।। अर्थ- मैं सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ को नमस्कार करता हूँ और आचार्य श्री शान्तिसागर को नमस्कार करता हूँ। तदनंतर मैं अपने गुरुवर्य आचार्य शान्तिसागर का वैराग्य बढ़ाने वाला जीवन चरित्र कहता हूँ। वीरे मोक्षं गते कालेऽष्टनवतयधिके शुभे । त्रयोविंशतिशतेऽब्दे षष्ठयांजातस्तृतीयतुक्॥२॥ आषाढ़ कृष्णपक्षे च शुभलग्ने शुभे ग्रहे । चरित्रनायकः श्रीमान् दयालुः सातगौडकः ।।३।। वृषाद्धि सातगौडोऽयं भावी श्रीशान्तिसागरः । जिनधर्ममहाकाशचन्द्रो मिथ्यात्वनाशकः ॥४॥ अर्थ- भगवान् वर्धमान स्वामी के मोक्ष जाने के बाद शुभसंवत्तेईस सौ अठानवे के आषाढ़ शुक्लाषष्ठी के दिन शुभलग्न और शुभ ग्रहों के होते हुए (माता सत्यवती की कोख से येलगुळ नामक ग्राम में) तीसरा पुत्र जो इस चरित्र का नायक श्रीमान् दयालु सातगौडा उत्पन्न हुआ था। धर्म के प्रभाव से यही सातगौड पुत्र आगे चलकर शान्तिसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं, जो कि मिथ्यात्व को नाश करने वाले हैं और जिनधर्मरूपी महा आकाश में चन्द्रमा के समान सुशोभित होते हैं। चतुर्विंशतिशते चत्वारिंशदधिके शुभे । वीरे शिवंगते प्राप्तः श्रीदेवेन्द्रगुरुं गृहात्॥५॥ ज्येष्ठशुक्ला त्रयोदशां गृहीत्वा क्षुल्लकव्रतम् । गुरुपकण्ठे स्थितवान् क्षुल्लकः कतिचिदिनम् ॥६॥ अर्थ- वीरनिर्वाण शुभसंवत् चौबीस सौ चालीस में वह पाटील सातगौड अपने घर से चलकर श्रीदेवेन्द्रगुरु के समीप पहुंचे और ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी के दिन उन्होंने क्षुल्लक के व्रत धारण किये। तदनंतर वे क्षुल्लक कुछ दिन तक अपने गुरु के समीप रहे। चतुर्विंशतिशते षट् चत्वारिंशत्तमे शुभे । शिवंगते जिने वीरे शुभाष्टाह्निक पर्वणि ॥७॥ फाल्गुन शुक्लपक्षे च चतुर्दश्यां महातिथौ । श्रीदेवेन्द्रगुरोः पार्थेदीक्षा जैनेश्वरी शुभा ॥८॥ देवधर्मगुरुश्राद्धसाक्षिकं शुद्धिचेतसा। गृहीता शुभसायाहे शांतिसागरयोगिना III श्रावकाः सकलास्तत्र हर्षिता वृषवर्द्धनात्। गीतवादित्रशब्दैश्च जपशब्दैः कृतोत्सवाः ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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