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चारित्र चक्रवर्ती
हँसानना शशिकला मनमोहिनी थी, लक्ष्मी समान जग सिंहकटी सती थी ॥ ६ ॥ हीरे समा नयन रम्य सुदिव्य अच्छे थे सूर्य चन्द्र सम तेज, जन्में दया भरित नारि सुकूँख से थे, दोनों अहो ! परम सुन्दर लाडले थे ॥ १० ॥
सुशान्त
बच्चे ।
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था ज्येष्ठ पुष्ट अतिहृष्ट सु देवगौड़ा,
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'सातगौड़ा' । कोश ही थे,
छोटा बड़ा चतुर बालक दोनों अहा ! सुकुल के यश या प्रेम के परम पावन सौंध ही थे ॥ ११ ॥ होता विवाह पर शैशवकाल में ही, पाती प्रिया अनुज की द्रुत मृत्यु यों ही । बीती कई तदुपरान्त अहर्निशायें, जागी तदा नव विवाह सुयोजनायें ॥ १२ ॥ तो देख दृश्य वह बालक सोचता है, है पंक ही नव विवाह, न रोचता है । दुर्भाग्य से सघन - कर्दम में फँसा था, सौभाग्य से बच गया, यह तीव्र साता ॥ १३ ॥
माँ ! मात्र एक ललना चिर से बची है,
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वैसी न नीरज मुखी अब लों मिली है । हो चाहती मम विवाह मुझे बता दो, जल्दी मुझे अहह ! अब ! शिवांगना दो ॥ १४ ॥
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इत्थं कहा द्रुत तदा वच भी स्व माँ को, निर्भीक भीम - सुत ने सुमृगाक्षिणी को । जो भीमगौड़ पति की अनुगामिनी थी,
औ कुन्दिता - मुकुलिता - दुखवाहिनी थी ।। १५ ।।
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काँटे मुझे दिख रहे घर में अहो ! माँ, चाहूँ नहीं घर निवास, अतः सुनो माँ । है जैनधर्म जग सार, पुनीत भी है, माता ! अतः मुनि बनूँ यह ही सही है ॥ १६ ॥ तू जायगा यदि अरण्य अरे सबेरे, उत्फुल्ल-लोल - कल- लोचन कंज मेरे बेटा ! अरे ! लहलहा कल ना रहेंगे, होंगे न उल्लसित औ न कभी खिलेंगे ॥ १७ ॥ रोती, सती बिलखती, गत हर्षिणी थी, जो सातगौड़ जननी, गजगामिनी थी । बोली निजीय सुत को नलिनीमुखी यों, ओ पुत्र ! सन्मुख तथा रख दी व्यथा यों ॥ १८ ॥
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