________________
अंतिम अमर संदेश "ॐ जिनाय नमः। ॐ सिद्धाय नमः। ॐ अहँ सिद्धाय नमः। भरत-ऐरावतक्षेत्रस्थ भूत-भविष्य-वर्तमान तीस चौबीसी भगवान् नमो नमः। सीमंधरादि बीस विहरमान-तीर्थकर भगवान् नमो नमः। ऋषभादि महावीरपर्यंत चौदह सौ बावन गणधरदेवेभ्यो नमो नमः। चौंसठ ऋद्धिधारी मुनीश्वराय नमो नमः । अंतकृतकेवलीमुनीश्वराय नमो नमः । प्रत्येक तीर्थंकर के समय होने वाले दश दश घोरोपसर्गविजयो मुनीश्वराय नमो नमः। _ग्यारह अंग चौदह पूर्व शास्त्र महासमुद्र है। उसका वर्णन करने वाला आज कोई श्रुतकेवली नहीं है। कोई केवली भी नहीं है। श्रुतकेवली उसका वर्णन कर सकता है। मुझ-सरीखा क्षुद्र मनुष्य क्या वर्णन कर सकता है ? यह सर्व जीवों का कल्याण करने वाला है। जिनवाणी सरस्वती देवी अनन्त समुद्र प्रमाण है, फिर उसमें जिनधर्म को जो जीव धारण करेगा उसका कल्याण अवश्य होता है। अनन्त सुख को प्राप्त कर वह मोक्ष प्राप्ति कर लेता है। अनन्त आगमों में एक अक्षर- एक ॐ अक्षर-मात्र को जो धारण करता है, उस जीव का कल्याण होता है। सम्मेदशिखर में दो बन्दर लड़ते थे। णमोकार मंत्र के प्रभाव से बन्दर स्वर्ग गया। श्रेष्ठी सुदर्शन ने बैल को उपदेश दिया, वह स्वर्ग गया। सप्तव्यसनधारी अंजन चोर को णमोकार मंत्र के उपदेश से उच्च गति हुई। यह तो जाने दो। कुत्ता महा नीच जाति के जीव को जीवंधरकुमार ने उपदेश दिया, वह भी देवगति में गया। इतनी महिमा जिनधर्म की है। परन्तु इसे कोई धारण नहीं करता है।
जैनी होकर भी जिनधर्म का विश्वास नहीं। अनन्तकाल से जीव पुद्गल दोनों भिन्नभिन्न हैं, यह सब जान जानता है, परन्तु विश्वास करते नहीं। पुद्गल अलग है, जीव अलग है। दोनों ही भिन्न-भिन्न होते हुए भी अपना जीव, जीव है या पुद्गल, इसका विचार करना चाहिए। अपने तो जीव हैं, पुद्गल नहीं। पुद्गल अलग है, जड़ है। उसमें ज्ञान नहीं है। दर्शन चैतन्य यह गुण जीव में है। स्पर्श, रस, वर्ण गंध यह पुद्गल में है। दोनों का गुणधर्म अलग है और दोनों अलग-अलग है। ___ अपने जीव हैं या पुद्गल ? अपने जीव हैं । पुद्गल के पक्ष में पड़ने के कारण अपने को इस मोहनीय कर्म ने अपने जाल में फँसा लिया है। मोहनीय कर्म जीव का घात करता है। पुद्गल के पक्ष में पड़े तो जीव का घात होता है, जीव के पक्ष में पड़े तो पुद्गल का घात होता है। अपने तो जीव हैं, इसलिये जीव का कल्याण होना, जीव को अनन्त सुख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org