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अंततः आचार्य श्री ने इंगनिमरण साध ही लिया
मृत्यु के क्षण के तीन दिन पूर्व से आचार्य श्री के -
न मल था, न मूत्र, न श्वेद, न भूख, न प्यास, न रोग, न शोक, न पीड़ा, न क्रंदन,
न कराह, न आक्रोश, न खीझ, न निराशा, न आशा,
न किसी से सेवा ली और न ही स्वयं ही स्वयं की सेवा की,
आयु कर्म पूर्ण होने तक लेटे रहे एक ही करवट,
उनके न नींद थी, न प्रमाद, न प्रसन्नता, न खेद, न क्लेश.... कुछ नहीं, भी नहीं था उनके पास ............ कुछ सिवाय सिद्धोऽहं व सिद्ध शरण के भावों के।
आयु कर्म पूर्ण हुआ और दीक्षा काल में जैसे निर्मम होकर त्यागे थे वस्त्र, ठीक उसी तरह अत्यंत निर्मम भाव से त्याग दी देह,
मानो साक्षात् स्वयं अपनी देह का त्याग करते हुए स्वयं का साक्षात्कार किया हो । ऐसा मृत्यु महोत्सव तो इस कलिकाल की इस सदी के भूतकाल में तो हुआ ही नहीं, किंतु संभवत: भविष्य में भी बिरलों को ही होगा। ॐ शांति शांति शांति
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