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प्रतिज्ञा - २
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प्रधानमंत्री से अधिकृत रूप से की जाने वाली चर्चा के लिये यह पहचान पर्याप्त नहीं थी । यह टेलिग्राम ७ दिसंबर को ही प्राप्त हो गया और ८ दिसंबर को तत्कालीन शिक्षामंत्री मौलाना अब्दुलकलाम आजाद से पंडितजी की आचार्य शांतिसागरजी महाराज के प्रतिनिधि के रूप में प्रथम मुलाकात शिरगूरकरजी ने असेम्बली भवन में करवाई ॥
पंडितजी व उनके बीच प्रश्नोत्तर का लम्बा दौर चला || संतुष्ट होने पर उन्होंने पूछा कि जैन समाज उनसे क्या चाहता है ।। पंडितजी ने आचार्यश्री की कांक्षा कही ॥ मौलानाजी ने आश्वस्त किया कि वे उनके साथ हैं ।
इसके पश्चात् तो एक के बाद एक मंत्रियों व प्रतिनिधियों से औपचारिक व कार्यालयीन मुलाकातों का दौर ही प्रारंभ हो गया । इन मुलाकातों में डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर, सरदार बलदेवसिंहजी (रक्षामंत्री), रफी अहमद किदवई, श्री संथामन, काँग्रेस अध्यक्ष श्री पट्टाभि सीतारामैया आदि से की गई मुलाकातें स्मरणीय रही ।।
यहाँ शिरगूरकरजी पाटील ने एक और कुशलता का परिचय दिया । इन समस्त मुलाकातों का ब्यौरा, पंडितजी द्वारा करवाई जा रही दैनिक सभाओं व पंडितजी द्वारा ही प्ररूपित जैनधर्म का पक्ष वे समय-समय पर स्थानीय अखबारों में मुद्रित करवाते रहे ।। न सिर्फ मुद्रित करवाते रहे, अपितु उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय को भी प्रेषित करवाते रहे, ताकि विषय की सार्वजनिकता, जैनधर्मावलम्बियों पर हो रहे अन्याय और आचार्य श्री के व्यक्तित्व की ओर प्रधानमंत्री कार्यालय का न सिर्फ ध्यान आकृष्ट किया जाय, अपितु उस पर गंभीरता से निर्णय लेने की पहल को बल भी मिले ||
हुआ भी । शिरगूरकरजी व पंडितजी के व्यक्तिगत प्रयासों, मंत्रियों से की गई मुलाकातों व स्थानीय अखबारों में प्रेषित समाचारों के आधार पर समुचे तंत्र में आचार्य श्री के पक्ष की सार्वभौमता व उनके व्यक्तित्व की अलौकिकता की विराट छवि की निर्मिति हो गई, जिसके वशीभूत हो प्रधानमंत्री कार्यालय ने शिरगूरकर पाटील के नेतृत्व व पं. तनसुखलालजी काला के प्रतिनिधित्व में जैन डेप्युटेशन को मंत्रणा के लिये २५.१.१९५० को आने का अत्यंत आदर पूर्वक निमंत्रण दिया ॥
निश्चित ही यह दिन जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य था || सम्पूर्ण जैन समाज में यह समाचार हर्ष और उल्लास का संचार कर गया ||
किंतु शिरगुरकर पाटील व पंडितजी के लिये नहीं | वे तो अपरिमित तनाव में थे ।। षट्दर्शन पारंगत व वाद कुशल इस महामना के सम्मुख विषय का प्रस्तुतीकरण सरल नहीं था ॥ किंचित् भी त्रुटि या असावधानी आचार्यश्री के मंतव्यों पर पानी फेर सकती थी ।
अपनी कुल उम्र में प्रथम बार पंडितजी ने चर्चा का पूर्वाभ्यास किया कि पं. नेहरूजी की ओर से जैनधर्म की सनातनता को लेकर क्या-क्या बाधायें उपस्थित की जा सकती
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