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प्रतिज्ञा - २
५६३
जिस पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई व प्रधानमंत्री कार्यालय से जैन समाज को संतुष्ट करने वाला पत्र प्राप्त हुआ जिसमें कहा गया था कि :
"संविधान में संशोधन की कोई आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि हमने जैन समाज को ज्ञापित पत्र में संविधान की भाषा का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है व स्पष्टीकरण दिया है कि जैनधर्म हिन्दूधर्म से सर्वथा भिन्न व एक स्वतंत्र धर्म है ॥'
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पत्र का मूल रूप इस प्रकार था :Prime ministers secretariat of India New Delhi 22nd February 1950
Dear sir,
I am in receipt of your letter of the 17th Feb 1950. We do not think any ammendment to the Constitution is necessary or called for. The language is quite clear and I have taken pains to Eexplain it. It is not Therefore proposed to change the language of the article in The constitution.
Yoyr's incerely
(A.V.PAI)
Principal private secretary to P.M
Shri Tansukhlalji kala Representative Acharya shantisagarji Maharaj
Mhasrul (nasik)
इस पत्र की प्राप्ती के पश्चात् पंडितजी वापस दिल्ली लौटे ॥
सहयोगी मंत्रियों व अन्य महामनाओं का जिन्होंने इस कार्य में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सहायता की थी, उन सभी के पास आचार्य श्री का आशीर्वाद पहुँचाते हुए, उनका साधुवाद किया || जिनका प्रत्यक्ष किया जा सकता था उनका प्रत्यक्ष व जिनका परोक्ष ही संभव था, उनका परोक्ष !!
इसके पश्चात् दिल्ली समाज ने न सिर्फ पं. तनसुखलालजी व शिरगूरकरजी पाटील का सम्मान किया, अपितु उन्हें मानपत्र भी भेंट किया, जिसका कि प्रकाशन तत्कालीन जैनाजैन समाचार पत्रों में हुआ ।।
इस प्रकार पंडित तनसुखलालजी काला व शिरगूरकरजी पाटील धर्म की विजय पताका लहराते हुए आचार्य श्री के श्री चरणों में गजपंथा ( म्हसरूल - नासिक, महा.) लौटे ॥
पं. तनसुखलालजी व शिरगुरकर पाटील दिल्ली में पाँच माह तक रहे । पाँच माह तक सप्तम प्रतिमाधारी पंडितजी ने एकासन किया || समस्त मंत्रीगणों द्वारा चाय आदि के औपचारिक निवेदन पर शिरगूरकरजी पाटील द्वारा पंडितजी के सप्तम प्रतिमा, सोले का
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