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क्षुल्लक श्री सिद्धिसागरजी महाराज
वैयावृत्य का निषेध
महाराज के अन्तिम क्षण में समीप रहने वाले क्षुल्लक सिद्धिसागर (ब्र. भरमप्पा) ने सिवनी में आकर शिखरजी जाते समय हमें बतलाया था कि - " अन्त के तीन दिन, चौबीसों घण्टे महाराज एक ही करवट रहे थे। पहिले महाराज ने हमें आज्ञा कर दी थी कि तुम हमारे हाथ-पाँव मत दबाना, क्योंकि हमने सेवा कराना छोड़ दिया है। तुम जबर्दस्ती सेवा करते थे, अब नहीं करना।"
शास्त्रदान की प्रेरणा
आचार्य महाराज संयम के सिवाय सम्यक्ज्ञान के भी महान् प्रेमी थे। उन्होंने कहा था- " ज्ञान बिना समाज में धर्म नहीं टिकेगा । ज्ञान का प्रसार सार्वजनिक जैनमन्दिर में स्वाध्याय के लिए ग्रंथ रखने से ही हो सकेगा, कारण कि वहाँ सब जैन लोग आते हैं और उन ग्रंथों पर सबका स्वत्व रहता है। उसे कोई उठाकर नहीं ले जा सकता। वह सुगमता सब को मिल सकता है। ग्रंथ की बिक्री से सुविधा नहीं होती । गरीब आदमी, त्यागी तथा सन्यासी लोग ग्रंथ नहीं ले सकते, इसीलिए जहाँ तक ब मुफ्त में ग्रन्थ बाँटना चाहिए।"
इंद्रिय - निग्रह का उपाय
एक दिन मैंने महाराज से पूछा - "महाराज ! इन्द्रिय-निग्रह किस प्रकार करना चाहिए ?" महाराज ने कहा था, “घोड़े का दाना-पानी बन्द कर दो, घोड़ा अपने आप वश में हो जाता है।" उन्होंने एक छोटे से उत्तर से गम्भीर प्रश्न का अनुभव के आधार पर समाधान कर दिया। नियमितपना
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महाराज में नियमितता (Punctuality) अधिक थी । वे समय पर कार्य करने का ध्यान रखते थे । उनमें गुणग्राहकता अपूर्व थी । यदि विशेष कलाकार उनके पास आता था, तो उसको वे बहुत प्रेरणा देते थे ।
बच्चों से नैसर्गिक प्रेम
बच्चों पर महाराज का अकृत्रिम प्रेम था । कितनी भी गम्भीर मुद्रा में वे हों, बालक के पास आते ही वे उसे देखकर हर्षित होते थे। कभी-कभी किसी बच्चे के हाथ में मोटर का
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