________________
श्रमणों के संस्मरण
५४३ उस समय उनके मुख से अन्त में ॐ सिद्धाय” शब्द मन्द ध्वनि में निकले थे।"
वैद्यराज ने कहा- “हमारी धारणा है कि महाराज का प्राणोत्क्रमण नेत्रों द्वारा हुआ। मुख पर जीवित सदृश तेज विद्यमान रहा आया था।"
********
बालगोंड़ापाटील,कोगनोली चिकोड़ी के नागगोंडा व जनगोंडा उर्फ बालगोंडा पाटील कोगनोली के प्रभावशील धर्मात्मा और गुरुभक्त सज्जन हैं। उन्होंने आचार्य महाराज की बहुत सेवा की थी। उन्होंने बताया कि जब शांतिसागर महाराज ने दीक्षा लेकर भोजभूमि से बिदा ली, तब उन्होंने कोगनोली ग्राम में अपनी प्रारम्भिक तपस्या का विशेष समय व्यतीत किया। आस-पास लोग शांतिसागर महाराज को कोगनोली के महाराज कहने लगे थे। उस समय पूर्ण दिगम्बर मुद्राधारी मुनियों का अभाव था। उस समय मुनि आहार लेते समय दिगम्बर हुआ करते थे। आचार्य शांतिसागर महाराज ने उस शिथिलाचार के जाल में जकड़ी हुई मुनिचर्या का उद्धार किया था। कोगनोली में वे दिगम्बर मुद्रा में रहा करते थे। एक उपवास, एक पारणा का क्रम बारह महीने चला करता था।
बालगोंडा पाटील ने बताया कि कोगनोली में आचार्य महाराज के शरीर पर सर्प लिपटा था। वह घटना तो सर्वत्र प्रसिद्धि पा चुकी है। हमारे यहाँ जब महाराज आये, तब उनकी तपश्चर्या बड़ी भीषण थी। रसों का परित्याग कर वे आहार लेते थे। बहुधा उपवास करते थे। दिगम्बर रूप में विचरण करते थे। कोई लोग उपसर्ग न कर दें, इस भय से ग्राम का प्रमुख व्यक्ति होने के कारण मैं महाराज का कमण्डल हाथ में लेकर सामने चलता था, जब महाराज शौच आदि के लिए बाहर निकलते थे। पागल द्वारा भयंकर उपसर्ग __ उस ग्राम में एक विचित्र घटना हुई थी। श्री पाटील ने बताया-“महाराज बस्ती के बाहर एक निर्जन स्थान में बनी हुई गुफा में रात्रि को रहा करते थे और आत्मध्यान में लगे रहते थे। दुर्भाग्य की बात थी कि एक बार नगर का एक पागल महाराज के पास जंगल में गया। महाराज उस समय कठोर तप किया करते थे उस एकान्त प्रदेश में उस पागल ने भयंकर उपद्रव किया। महाराज का शरीर अत्यन्त बलशाली था। यदि वे शान्ति के सागर न होते, तो उस पागल को कहीं भी उठाकर फेंक सकते थे, किन्तु वे तो आचार्य महाराज थे। क्षमाशील साधुओं के स्वामी थे। भीषण उपद्रव में भी वे अविचलित थे। उस पागल के हाथ में एक लकड़ी थी, जिसके अग्र भाग में नोकदार लोहे का कीला लगा था। उससे बैलों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org