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श्रमणों के संस्मरण
४६१ दुष्ट का समाधान
उन्होंने बताया-“एक बड़े जैन विद्वान् मुनिपद धारण के प्रतिकूल धारणा वाले थे। वे शांतिसागर महाराज के पास आये। उस समय वे विद्वान् अपनी अश्रद्धा व्यक्त करते हुए मुनिपद के विरुद्ध अनेक बातें कहने लगे। शान्तमूर्ति आचार्य महाराज ने कहा- पं. जी! आप एक वर्ष के लिए मुनि की चर्या पाल लो। उसको पालन करने के बाद अनुभव के आधार पर आप जो भी बात कहेंगे, उसे हम पालन करने को तैयार रहेंगे। उनके इस उत्तर को प्राप्त कर वे पंडितजी नतमस्तक हो चुप हो गये।" महान् तपस्वी
वीरसागर महाराज कहने लगे-"आचार्य महाराज की तपस्या की बात मत पूछो। उन्होंने कठोर से कठोर संयम की साधना की थी। उन्होंने सिंहनिष्क्रीड़ित नाम का महान् तप किया था। सब रसों का त्याग कर रखा था। उनका सारा जीवन उज्ज्वल संयम की साधना में संलग्न रहता था। चरित्रमोह का भार न्यून होने से उन्हें उपवासादि में आनन्द आता था।" अलौकिक प्रभाव
वीरसागर महाराज ने बताया-“उनका प्रभाव अलौकिक था। मैंने और खुशालचन्द्रजी पहाड़े (चन्द्रसागरजी) ने उनके कोन्नूर में दर्शन किये थे। उन्हें देखते ही हम दोनों के मन पर क्या प्रभाव पड़ा, हम नहीं कह सकते। उन्हें देखकर हमारा मन यही बोला कि ऐसे गुरु को छोड़कर अब नहीं जाना चाहिए। उनके दर्शन से अपने-आप हमारे परिणाम संयम की ओर वृद्धिंगत हुए। उन्होंने हमें प्रेरणा तक नहीं की किन्तु उनका आध्यात्मिक प्रभाव अन्तःकरण को प्रबल प्रेरणा प्रदान करता था।" उस समय वीरसागरजी का नाम ब्र. हीरालाल था। __ महाराज के लोकोत्तर प्रभाव का उल्लेख करते हुए वीरसागरजी महाराज ने बताया"एक स्त्री बड़े भीषण स्वभाव और उद्दण्ड प्रकृति की थी। उसने आचार्य महाराज को देखा। उसका जीवन इनकी तपःपुनीत मुद्रा से महान् प्रभावित हुआ और उसके भावों में बड़ी शान्ति आ गई। उसने क्षुल्लिका के व्रत धारण कर लिये थे।" धर्म में अरुचि क्यों?
प्रश्न-"महाराज ! आजकल अन्य लोगों की जैनधर्म में रुचि नहीं है। जैनी क्यों अल्प संख्या वाले है ? जैनों की अल्पसंख्या क्यों है ?"
उत्तर-“जौहरी की दुकान में बहुत थोड़े ग्राहक रहते हैं, फिर भी उसका अर्थलाभ विपुल मात्रा में होता है। सागभाजी बेचने वाले की दुकान पर बड़ी भीड़ लगी रहती है, फिर भी बहुत थोड़ी ही आमदनी होती है। इसी प्रकार वीतराग भगवान् का धर्म है। बिना निर्मल परिणाम हुए उसे पालन करने को लोगों की तबियत नहीं होती।"अनादि संस्कारवश
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