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चारित्र चक्रवर्ती उस समय मैंने उनसे लोकहित को लक्ष्यकर पूछा- “महाराज! लगभग दस हजार उपवास करने रूप अनुपम तथा लोकोत्तर तपःसाधना करने से आपके विशुद्ध हृदय में भारत देश का भविष्य कैसा नजर आता है ? देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल, अन्नाभाव आदि के कष्टों का अनुभव कर रहा है। आपका हृदय इस विपत्ति-मालिका से मुक्ति पाने का क्या उपाय बताता है ?" विपत्ति से छूटने का उपाय ___ महाराज नेमिसागरजी ने कहा-“जब भारत पराधीन था, उस समय की अपेक्षा स्वतन्त्र भारत में जीववध, मांसाहार आदि तामसिक कार्य बड़े वेग से बढ़ रहे हैं। इनका ही दुष्परिणाम अनेक कष्टों का आविर्भाव तथा उनकी वृद्धि है।" आचार्यश्री का कथन
आचार्य महाराज सदा कहा करते थे-“मांसाहार, जीवहिंसा, अतिलोभ, व्यभिचारवृद्धि, विलासिता के साधनों की प्रचुरता के द्वारा कभी भी आनन्द नहीं मिल सकता है। भारतीय शासन यदि प्रजा को सुखी देखना चाहता है, तो उसका पाप-कार्यों से विमुख होना जरूरी है। हिरण, बन्दर, मछली आदि जीवों की हत्या के कार्यों में राजसत्ता द्वारा उद्योग किया जाना सब संकटों का बीज है।" __ "व्यक्तिगत पापाचारों को पूर्णरूप से रोकना सहज नहीं है, किन्तु शासन-सत्ता सहज ही अपने पाप-व्यवसायों को रोककर अहिंसामूलक प्रवृत्तियों को प्रश्रय प्रदान कर सकती है, यदि भारत के कर्णधारों ने अपना ढङ्ग-रङ्ग न बदला, तो देश उत्तरोत्तर अधिक संकटग्रस्त होगा।"
ये बहुमूल्य अनुभव ७७ वर्ष की अवस्था वाले मुनिराज ने हमें सुनाये थे। उनके कथन का औचित्य सूर्यप्रकाश के समान स्पष्ट है। देश में जो सात्विक प्रवृत्तिवाले जीव जीवित हैं, उनका संगठित होकर तामसिक विषमयी प्रवृत्तियों को दूर करने का उद्योग वांछनीय है। पुण्य प्रवृत्तियों के आधार पर ही आनन्द का भवन खड़ा किया जा सकता है।
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उपयोगी शिक्षा बुराई अपने आप आती है। उसे दूर करने में उद्योग लगता है। जैसे धन कमाने में परिश्रम करना पड़ता है, परधन केखोने में कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। दुराचारी बनने में कुछ भी श्रम नहीं लगता, सदाचारी बनने के लिएआत्मा में शक्ति चाहिए।बुजदिल, डरपोक व्यक्ति ही इन्द्रियों की गुलामी करते हैं।
-पृष्ठ-५०२, आचार्य नेमिसागरजी उवाच
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