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मुनिराज श्री
नमिसागरजीमहाराज जैनधर्म की प्रभावनार्थ किये गये जापान, हांगकांग, सिंगापुर आदि के लम्बे प्रवास से लौटकर आत्मनिर्मलता के हेतु मैं ता. १६ अक्टूबर, १९५६ को कलकत्ता से चलकर संध्या को पारसनाथ (ईसरी) आया। ता. १८ को शिखरजी की वंदना की। अपूर्व शांति मिली। वह चुतर्दशी का पुण्य दिवस था। अन्तःकरण को बहुत आल्हाद मिला। मैंने उस दिन उपवास किया। मुझे रंचमात्र भी कष्ट नहीं मालूम पड़ा। स्मरण आया स्व. गुरुदेव आचार्य शान्तिसागर महाराज का पुनीत वाक्य-“निर्वाणस्थान में उपवास आदि की कठिनता नहीं प्रतीत होती। इसी से मैं समाधि के लिए निर्वाणभूमि में आया हूँ।"ईसरी में समाधिमरण का संकल्प कर अपने रत्नत्रय की रक्षा में उद्यत १०८ दिगम्बर महातपस्वी मुनिराज नमिसागरजी महाराज का दर्शन हुआ था। ता. १७ अक्टूबर को उन साधुराज से कुछ चर्चा हुई थी। अल्प काल के बाद उनका स्वर्गवास हो गया था, फिर भी धर्मप्रेमियों के लिये उनका वर्णन हितकारी होगा, ऐसा विश्वास है। शारीरिक पीड़ा
प्रश्न-“महाराज! आपका शरीर अस्थिपंजरमात्र रह गया है। आपने सल्लेखना की तैयारी की है। कुछ मानसिक अशांति या आकुलता तो नहीं है?"
महाराज ने कहा-“मैं आचार्य शांतिसागरजी महाराज का शिष्य हूँ। उनके ही समान समाधि का उद्योग कर रहा हूँ। मेरे पास पूर्ण शांति है। शरीर की पीड़ा के बारे में क्या पूछते हो? शरीर की पीड़ा शरीर के पास है। मेरे पास नहीं, मेरा आनन्द मेरे पास है। मुझे कोई भय नहीं। मैं सुखी हूँ।"
प्रश्न-“महाराज! इस सल्लेखना व्रत के कारण आपका आनन्द पहले के आत्मीक आनन्द से कुछ न्यून हुआ है या नहीं ?"
महाराज-"इस कारण मेरा आनन्द बहुत बढ़ रहा है। मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति का मार्ग मिला है। मुक्तिरमणी की उपलब्धि आगे होगी, इस कल्पना से महान् आनन्द आ रहा है।"महाराज मेरे लिए क्या आज्ञा है ? __ महाराज बोले-"तुमने जापान जाकर जिनधर्म की प्रभावना की। यह बहुत अच्छा किया। तुम योरोप, अमेरिका आदि देशों में जाकर जैनधर्म का प्रचार करो। धर्म-प्रचार
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