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आचार्य श्री
अनन्तकीर्तिजीमहाराज अपूर्व आध्यात्मिक आकर्षण
मुनि अनन्तकीर्ति महाराज बेलगाँव वालों ने बताया-“आचार्य महाराज का व्यक्तित्व असाधारण आध्यात्मिक आकर्षण का केन्द्र था। जिस प्रकार चुम्बक लौह पदार्थ को अपनी ओर खींचता है, उसी प्रकार अच्छे भविष्य वाले भव्य जीव उनके सान्निध्य को पाकर उनसे बहुत कुछ प्राप्त करते थे। उनके उपदेश के बिना ही बहुतों की आत्माएँ पाप-पंक से निकलकर संयम की उज्ज्वल भूमि में अवस्थित हुई थी।" अपना अनुभव व व्यक्तित्व का प्रभाव __उन्होंने स्वयं अपना अनुभव इस प्रकार बतलाया-“आचार्यशान्तिसागर महाराज कोन्नूर ग्राम में अपना वर्षाकाल व्यतीत कर रहे थे। मैं उनके पास जाया करता था। उनका दर्शन कर मन में यही इच्छा होती थी कि मैं भी दिगम्बर मुद्रा धारण कर उनके साथ में रहूँ। बार-बार न जाने क्यों ऐसी इच्छा हुआ करती थी कि घर में, कुटुम्ब में, व्यापार में तथा परिवार में कुछ नहीं रखा है। उन साधुराज सदृश बनने में ही शान्ति का लाभ होगा।"
"उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मैंने ब्रह्मचर्य प्रतिमा ग्रहण की। एक वर्ष के पश्चात् क्षुल्लक पद ग्रहण किया। इसके बाद मैं निर्ग्रन्थ बना। मैंने (स्वयं ही) क्षुल्लक पद पञ्चकल्याणक के अवसर पर लिया था, किन्तु आचार्य शान्तिसागरजी के पास आकर मैंने नवीन रूप से पुनः दीक्षा ली थी।" पुनः दीक्षा लेने का हेतु
मैंने अनन्तकीर्ति महाराज से पूछा-"जब आपने दीक्षा ले ली थी, तब पुनः दीक्षा लेने का क्या कारण था ?"
उन्होंने कहा-“दीक्षा गुरु पाहिजे-दीक्षा-गुरु होना आवश्यक है।"
उनके वाक्यों को सुनकर सचमुच में यह बात मन को उचित लगी। कई मुमुक्षुजन सद्गुरु का सान्निध्य पाने का प्रयत्न न करके स्वयं दीक्षा ले लेते हैं। उनकी कृति में अनेक बातें कभी-कभी ऐसी आ जाती हैं, जो उनके जीवन में नहीं होती, यदि उन्होंने किसी को दीक्षागुरु बनाया होता।
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