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चारित्र चक्रवर्ती
और दरीगोंडा के साथ पहुंचा था। मैं तथा मेरे साथी, जिन्हें मैं काका कहता था, जैनगृहस्थों के हाथ का ही जल पीते थे। महासभा के एक पदाधिकारी सज्जन ने हमसे कहा कि यहाँ शोध के चौके में जैन ही पानी लाता है तथा भोजन बनाता है। हमने उस चौके में दोतीन दिन भोजन किए। अन्त में पता चला कि वहाँ कहार जाति का आदमी पानी लाता था। इससे मेरे मन में बहुत खेद उत्पन्न हुआ। वापिस लौटकर हमने आड़ते नाम के स्थान पर आचार्य महाराज के दर्शन किए। यह कोल्हापुर के समीप है।
हमने आचार्य महाराज के समक्ष अपना सर्व वृत्तान्त सुनाया कि उत्तर प्रान्त में जाने पर किस प्रकार हमारे नियम में दूषण आ गया। आचार्य महाराज ने सम्पूर्ण कथन ध्यान से सुना। इसके पश्चात् महाराज ने प्रायश्चित्त ग्रन्थ उठाकर लगभग आधा घंटे के अनन्तर हमें महामंत्र की विशेष जापरूप प्रायश्चित्त दिया। मैंने कहा - " इतना प्रायश्चित्त देने में आपको अधिक समय क्यों लगा ?"
महाराज ने कहा- " शास्त्र में उपवास का प्रायश्चित्त अनेक स्थल पर बताया गया है। हम जानते हैं कि तुमको सरकारी काम के कारण बाहर सदा दौरा करना पड़ता है, इससे तुमको उपवास रूप प्रायश्चित्त क्लेशदायी हो जायगा । यह विचार कर हम तुम्हारे योग्य प्रायश्चित्त को देखते थे, इससे हमें समय लग गया ।" वे गंभीर विचारक थे।
अभिषेक के बारे में महत्व की बात
स्व. आचार्य शांतिसागर महाराज सदृश आगम की आज्ञा को मानने वाला विशुद्ध श्रद्धावान् कौन होगा, जिन्होंने आगम के आदेश को ध्यान में रखकर अपने सुदृढ़ शरीर को समाधिमरण की अग्नि में समर्पित कर दिया था। वे गुरुदेव कुंथलगिरि में सल्लेखना के आत्म चिंतन एवं आत्मविशुद्धि के अपूर्व काल में प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान के मन्दिर में जाकर देशभूषण, कुलभूषण भगवान का पंचामृत द्वारा किया गया वैभवयुक्त अभिषेक देखकर विशेष शान्ति प्राप्त करते थे ।
एक दिन तो महाराज ने प्रबन्धकों से कहा था- -"तुम लोग अभिषेक की बोली में दो-दो हजार, ढाई-ढाई हजार रुपया तक लेते हो; किन्तु अभिषेक की सामग्री में क्यों कमी करते हो ?"
महाराज के उलाहना देने पर दूसरे दिन घड़ों दही-दूध से भगवान का अभिषेक लगा था। महाराज बड़े ध्यान से जिनेन्द्र का अभिषेक देखते थे।
-पृष्ठ- ४५७, मुनिराज श्री वर्धमानसागरजी उवाच
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