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श्रमणों के संस्मरण
५२७ शेडवाल में सर्प का उपसर्ग
आचार्य महाराज आत्मबली, उग्रतपस्वी तथा निर्भय हृदय वाले थे। सर्प के द्वारा अनेक बार उन पर उपसर्ग हुआ। सन् १६२६ की बात है-“महाराज शेडवाल अनाथाश्रम की समीपवर्ती गुफा में ध्यानार्थ गए। रात्रि भर वहाँ रह कर, ध्यान के पश्चात् गुफा से बाहर आते समय उन्होंने सबेरे श्रावक से कहा- “होशयारी से भीतर जाना।" उस श्रावक ने भीतर जाकर देखा, तो उसे कुछ नहीं दिखा। मैं भीतर गया, तो प्रयत्नपूर्वक खोज की। महाराज के शब्द अन्यथा नहीं हो सकते, इस विश्वास से मैंने विशेष ध्यान देकर इधरउधर खोज की, तो एक फोटो के पीछे लगभग दो हाथ का सर्प छिपा था। मैंने उसे पकड़कर खेत में छोड़ा था।" कोगनोली में सर्पराज का उपसर्ग __ “महाराज कोगनोली की गुफा में ध्यान करने बैठे थे। एक सर्प लगभग आठ हाथ लम्बा तथा बड़ा मोटा महाराज के पेट तथा अधोभाग में लिपटा हुआ बैठा था। महाराज गंभीर मुद्रा में अवस्थित थे। सैकड़ों लोगों ने आकर देखा। घंटे भर बाद वह सर्प स्वयमेव चला गया। महाराज का ध्यान पूर्ण हुआ।
उन्होंने उपस्थित लोगों को यह प्रतिज्ञा दिलाई थी कि इस सर्प की बात को जाहिर नहीं करेंगे। लोगों ने अपने प्रतिज्ञा की इतनी मात्र पूर्ति की थी कि उन्होंने यह वर्णन नहीं छपवाया, किन्तु वे इसकी चर्चा को नहीं रोक सके। गुरु की ऐसी अपूर्व तपस्या को देख भला कौन अपना मुख बंद रख सकता था ?"
कोगनोली में सर्प के भीषण उपद्रव की अवस्था में अविचलित तथा प्रसन्नतापूर्ण ध्यान-मुद्रा से महाराज की महिमा का प्रसार दक्षिण में बड़े वेग से हुआ। लोगों की भक्ति भी खूब वृद्धि को प्राप्त हुई।
सन् १९१८ में मेरा एक मित्र मुनि शान्तिसागरजी के गुण गाता था, तब मैं निरादर भाव से कहा करता था-"उनमें क्या धरा है ? वे सामान्य मनुष्य सरीखे होंगे।" प्रथम दर्शन
एक दिन रविवार को चिकोड़ी में कचहरी बन्द रहने से मैंने नौ मील पर स्थित नसलापुर जाकर महाराज को देखा। उनके दर्शन होते ही मेरे मन में उनके चरणों के प्रति अपार प्रीति उत्पन्न हुई। उस समय मुझे अवर्णनीय आनन्द प्राप्त हुआ। आज भी उस घटना का स्मरणकर चित्त में महान् शान्ति प्राप्त होती है। उनकी आत्मा का ऐसा ही प्रभाव पड़ता था, जैसा चुम्बक का लोहे पर पड़ता है। मेरा जीवन बदल गया। मैं आज उनके प्रभाववश ही मुनि बना।
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