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चारित्र चक्रवर्ती जीव असंयम की ओर जाता है। जो उपदेश उस ओर ले जाता है वह मोही जीव को अच्छा लगा करता है। पुरुषार्थी तथा आत्मबली व्यक्ति जितेन्द्रियता के उपदेष्टा धर्म में लगते हैं। ऐसी उच्च आत्माएं थोड़ी संख्या में होती हैं। सार्वधर्म
प्रश्न-“जैनधर्म सार्वधर्म है, तो सबको पालन करने का अधिकार मिलना चाहिए। यदि सबको जैनी नहीं बनाते हो, तो जैन धर्म सार्वधर्म नहीं बनेगा। ऐसी स्थिति में सार्वधर्म माने जाने वाले जैनधर्म वालों के मन्दिर में शूद्रों का प्रवेश क्यों रोकते हैं ?" ___ उत्तर-“कोई नहीं रोकता। जैन बनने की रोक-टोक कहीं नहीं है, इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मन्दिर अजायबघर नहीं, वह धर्म का आयतन है। जैनधर्म को मानने वाला उसमें जायगा। अपनी योग्यता के अनुसार प्रत्येक को आना चाहिए।" धर्म में मर्यादा
प्रश्न-“शूद्र की कितनी योग्यताएँ हैं ?"
उत्तर-“शूद्र की बात तो दूसरी, वह तो मनुष्य है। पशु पर्यायवाला मेंढक तक जैन माना गया है, उसको जैन बनने से किसी ने रोका क्या ? वह फूल मुख में रखकर भगवान् के दर्शन को जा रहा था, किंतु ऐसा तुम नहीं कर सकते। जैनधर्म का कथन व्यवस्थित और नियमानुसार है। पहिले जैन बनो और देखो कि जैन कानून तुम्हारे विषय में क्या आज्ञा देता है। आचार्य शांतिसागर महाराज ने अनेक शूद्रों को जैनी बनाया था। वे जिनमन्दिर में प्रवेश न करके जिनमन्दिर के दर्शन करके प्रसन्नथे। वे मन्दिर के भीतर नहीं गये थे और कहते थे कि पूर्व भव में महान् पाप कर हमने यह अवस्था पाई है। अब यदि जिन भगवान की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करेंगे, तो आगे हमारी क्या गति होगी? इसलिए अपनी मर्यादा के भीतर प्रवृत्ति करना चाहिए।" विद्या की बिक्री
वीरसागर महाराज गृहस्थ जीवन में अवैतनिक रूप से धर्मशिक्षण का कार्य करते थे। उनके पूर्व विद्यार्थी चिन्तामणि जैन जालना ने बताया था कि- “वीरसागर महाराज ने फुलेरा में मुझसे कहा था, तुम पूजा, विधान आदि करते हो, तुम्हें उसका मूल्य नहीं ठहराना चाहिये। जो भेंट श्रावक देवे, उसमें ही आनन्द मानना चाहिए। अपनी अनमोल विद्या की कीमत नहीं करना चाहिए। तुमने जैसे ही कहा कि इतना लेंगे, इसका अर्थ है कि तुमने विद्या बेच दी। ऐसा नहीं करना चाहिए।"
आचार्य वीरसागर महाराज प्रातःस्मरणीय सत्पुरुष हो गये।
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