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श्रमणों के संस्मरण मेरे दीक्षा लेने के भाव हैं। अपने कुटुम्ब से परवानगी लेने का विचार नहीं है। घरवाले कैसे मंजूरी देंगे? मुफ्त में नौकर मिलता है, जो कुटुम्ब की सेवा करता रहता है, तब फिर परवानगी कौन देगा?"
महाराज ने कहा- “ऐसा शास्त्र में कहा है कि आत्मकल्याण के हेतु आज्ञा प्राप्त करना परम आवश्यक नहीं है।" ।
"मेरे दीक्षा लेने के भाव अठारह वर्ष की अवस्था में ही उत्पन्न हो चुके थे। उसके पूर्व की मेरी कथा बड़ी विचित्र थी।" पूर्व जीवन में मुसलिम प्रभाव _ नेमिसागर महाराज का पूर्व का जीवन सचमुच में आश्चर्यप्रद था। उन्होंने यह बात बताई थी-“मैं अपने निवास स्थान कुड़ची ग्राम में मुसलमानों का बड़ा स्नेहपात्र था। मैं मुसलिम दरगाह में जाकर पैर पड़ा करता था। सोलह वर्ष की अवस्था तक मैं वहाँ जाकर उदबत्ती जलाता था। शक्कर चढ़ाता था।" कुड़ची में यवनों की अधिक संख्या है। वहाँ जाकर वह घर भी मैंने देखा है, जहाँ नेमण्णा के रूप में उनका निवास था। ___ “जब मुझे अपने धर्म की महिमा का बोध हुआ, तब मैंने दरगाह आदि की तरफ जाना बन्द कर दिया। मेरा परिवर्तन मुसलमानों को सहन नहीं हआ। वे लोग मेरे विरुद्ध हो गए और मुझे मारने का विचार करने लगे।" जहाँ मौका मिलता है, यवन-वर्ग बलप्रयोग करता आया है। ऐनापुर में स्थान-परिवर्तन
“ऐसी स्थिति में अपनी धर्म-भावना के रक्षण निमित्त मैं कुड़ची से चार मील की दूरी पर स्थित ऐनापुर ग्राम में चला गया। वहाँ के पाटील की धर्म में रुचि थी। वह हम पर बहुत प्यार करता था। इससे मैंने ऐनापुर में रहना ठीक समझा।" रामू के साथ खेती ___ “अपने जीवन निर्वाह के लिए मैंने, रामू ने (जो बाद में कुंथुसागर महाराज के रूप में प्रसिद्ध हुए) तथा एक और व्यक्ति ने मिलकर ठेके पर जमीन ली।
आचार्य महाराज नसलापुर में थे। मैं उनके पास एक माह रहा था। उसके पश्चात् महाराज चातुर्मास हेतु ऐनापुर पधारे। मैं हमेशा महाराज के पास रहता था। खेती का कुछ भी ध्यान नहीं था। उनके पास मन ऐसा लग गया था कि मुझे अपने भविष्य का कुछ भी ध्यान नहीं था। मेरी सारी स्थिति से महाराज परिचित थे।
एक दिन वे बोले-“तुमने बिना कारण खेती में पैसा डाल दिया। ऐसा क्यों किया ?" मैं और रामू महाराज के पास अधिक समय देते थे। हमारा भाव दीक्षा लेने का हो गया
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