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चारित्र चक्रवर्ती
मिले। नेमिसागर महाराज तपस्या के क्षेत्र में सबको निरुत्तर बनाते हुए अनुत्तर हैं। महापुराण में लिखा है- 'तपः सूते महत्फलम्' यह तपस्या महान् फलों को उत्पन्न करती है । इससे महान् निर्जरा होती है, तथा श्रेष्ठ पुण्य बंध होता है। आज नेमिसागर महाराज का नाम सार्थक लगता है। तपस्या के क्षेत्र में भगवान् नेमिनाथ तीर्थकर का जीवन भी लोकोत्तर ही नहीं, लोकोत्तम रहा है। उनका नाम धारण करनेवाली निर्ग्रन्थ मुद्राधारी आत्मा का जीवन भी आध्यात्मिक सुवास - सम्पन्न है।
महातपस्वी साधुराज श्री १०८ नेमिसागर महाराज के पास बम्बई में सन् १९५८ तथा १६५६ के दशलक्षण पर्व में पहुंचकर अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात की । उनसे तत्त्वाभ्यासी वर्ग को विशेष लाभ होगा, कारण कि नेमिसागर महाराज उच्चकोटि की साधना में संलग्न तपस्वी हैं। १७ सितम्बर १९५८ को मैंने उनके दर्शन किए थे। आचार्य शांतिसागर महाराज के जीवन संबंधी सामग्री को लक्ष्य कर मैंने उन गुरुदेव से चर्चा प्रारम्भ की। परिचय
१०८ नेमिसागर महाराज महान् तपस्वी हैं। उन्होंने कहा - " हमारा और आचार्य महाराज का ५० वर्ष पर्यन्त साथ रहा। चालीस वर्ष के मुनिजीवन के पूर्व मैंने गृहस्थावस्था
भी उनके सत्संग का लाभ लिया था । आचार्य महाराज कोन्नूर में विराजमान थे। वे मुझसे कहते थे- “तुम शास्त्र पढ़ा करो। मैं उसका भाव लोगों को समझाऊँगा ।" वे मुझे और बहू को शास्त्र पढ़ने को कहते थे। मैं पाँच कक्षा तक पढ़ा था। मुझे भाषण देना नहीं आता था। शास्त्र बराबर पढ़ लेता था, इससे महाराज मुझे शास्त्र बाँचने को कहते थे। मेरे तथा बन्डू के शास्त्र बाँचने पर जो महाराज का उपदेश होता था, उससे मन को बहुत शांति मिलती थी । अज्ञान का भाव दूर होता था । हृदय के कपाट खुल जाते थे । उनका सत्संग मेरे मन में मुनि बनने का उत्साह प्रदान करता था। मेरा पूरा झुकाव गृह त्यागकर का हो गया था । "
पिताजी से चर्चा
" एक दिन मैंने अपने पिताजी से कुड़ची में कहा- “मैं चातुर्मास में महाराज के पास जाना चाहता हूँ ।"
वे बोले - "तू चातुर्मास में उनके समीप जाता है, अब क्या वापिस आयेगा ?” पिताजी मेरे जीवन को देख चुके थे, इससे उनका चित्त कहता था कि आचार्य महाराज का महान् व्यक्तित्व मुझे संन्यासी बनाए बिना नहीं रहेगा । यथार्थ में हुआ भी ऐसा | '
जीवनधारा में परिवर्तन
" चार माह के सत्संग ने मेरी जीवनधारा बदल दी। मैंने महाराज से कहा- "महाराज !
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