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पावन समृति
४२२ मैंने उनसे पूछा- “महाराज! आप लम्बा प्रवास करते समय कैसे ईर्यासमिति का पालन कर सकते हैं ?" उत्तर में उन्होंने बताया-"हम एक घण्टे में तीन मील चलते हैं। मन्दिरप्रवेश के सम्बन्ध में बम्बई जाकर सिद्धाग्रह निमित्त हम चले थे। सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यन्त सामायिक का काल छोड़कर १० घण्टे चलते थे। उपवास था, इससे ३० मील तक चले गये थे।"
ईर्यासमिति का भाव स्पष्ट करने के लिए उन्होंने पर्वत पर बिना रुके हुए चढ़कर बताया, जिससे यह ज्ञात होता था कि शिखरजी की पहाड़ी पर इन साधुओं को जाते हुए अल्पकाल में जीवरक्षा होते हुए, लम्बा विहार कैसे होता था ? असल बात यह है कि ये आत्मयोगी साधु चलते समय बीच में विश्राम लेना या रुकना नहीं जानते। इससे समय बचता है और अधिक यात्रा होती है। अशक्त गृहस्थों के समान ये न रास्ते में ठहरते हैं, न गति धीमी ही करते हैं। सतत विहार करते रहने से शरीर के स्नायुमण्डल मजबूत रहते हैं। वास्तुशास्त्र-निपुण __ पर्वत पर एक शांति कुटी बनी। उसके निर्माण के समय बड़े-बड़े कान्ट्रेक्टरों से महाराज की जो बात होती थी, उससे स्पष्ट होता था कि वे वास्तुशास्त्र में भी पूर्ण प्रवीण हैं। अद्भुत तेज-सम्पन्न शरीर
भादों सुदी नवमी को महाराज शास्त्र-सभा में से बीच में ही कुछ काल के लिए उठ गए। उनके सिवाय सभी पुरुष तथा महिला मण्डली शास्त्र में बैठी थी, किन्तु ऐसा लगा कि मानों वहाँ विपुल तेज वाली आत्मा नहीं हैं। इससे मन में सूनापन-सा लगता था। थियासफी (theosophy) वाले जिसे ओजशक्ति (aura) कहते हैं, यह महाराज में गजब की वृद्धिंगत मालूम पड़ती थी। संयम के लिए प्रेरणा
संयम के लिए मार्मिक प्रेरणाप्रद बात कहते हुए वे बोले-"आपपंडित लोग सबको धर्म की बात बताते हो, किन्तु स्वयं उन पर नहीं चलते। यह तो धोबी का काम है जो सबके वस्त्र धो-धोकर स्वच्छ करता है, किन्तु अपने शरीर को मलिन वस्त्रों से ढाँके रखता है।" दीनों के हितार्थ विचार
कुंथलगिरि में पर्युषण पर्व में महाराज ने गरीबों के हितार्थ कहा था कि-सरकार को प्रत्येक गरीब को जिसकी वार्षिक आमदनी १२० रु. हो, पाँच एकड़ जमीन देनी चाहिए
और उसे जीववध तथा मांस का सेवन न करने का नियम कराना चाहिए। इस उपाय से छोटे लोगों का उद्धार होगा।" महाराज के ये शब्द बड़े मूल्यवान हैं- “शूद्रों के साथ जीमने से उद्धार नहीं होता। उनको पाप से ऊपर उठाने से आत्मा का उद्धार होता है। जब
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