________________
राजा
४५१
चारित्र चक्रवर्ती सकती है?
आज वास्तव में समाज के कर्णधारों का कर्तव्य है कि अपने ज्ञान-केन्द्रों की बारीकी से जाँच करके उनको इस रूप में चला कि आचार्यश्री के रत्नत्रयपोषक दृष्टिकोण से उसकी अनुकूलता हो।
महान् आचार्य जिनसेन स्वामी ने बताया है, कि आदिनाथ भगवान ने अपने परिवार के बालक-बालिकाओं को विविध शास्त्रों में निपुण बनाया था। उनकी दृष्टि से लोकविद्या के साथ परमार्थ विद्या का भी शिक्षण आवश्यक था। आदिपुराण (पर्व ४२-श्लोक ३४) के ये शब्द हितप्रद हैं -
राजविद्यापरिज्ञानादैहिकार्थे दृढ़ा मतिः।
धर्मशास्त्र-परिज्ञानान्मतिर्लोकद्वयाश्रिता॥ राजविद्या के ज्ञान से लौकिक वस्तुओं के विषय में बुद्धि सुदृढ़ बनती है, किन्तु धर्मशास्त्र के परिज्ञान से उभय लोकों के विषय में बुद्धि को दृढ़ता प्राप्त होती हैं। लौकिक शास्त्रों का अभ्यास
आत्म-कल्याणकारिणी विद्या के अभ्यास के साथ प्रतिभाशाली गृहस्थ के लिए अन्य लौकिक शास्त्रों का अध्ययन भी उचित कहा गया है। महापुराणकार भगवज्जिनसेन स्वामी ने उपासकाचार एवं अध्यात्मशास्त्र के साथ शब्दविद्या, अर्थशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, गणितशास्त्र, छंद ज्ञान, शकुनशास्त्र आदि का अभ्यास भी उपयोगी बताया है। सेवा द्वारा सुफल लाभ
आचार्य महाराज तो वीतराग भाव वाले मुनि रहे है, किन्तु उनके शरण में आने वालों को समृद्धि मिली है और उनसे विमुख होने वालों को विपत्ति। ___ महाकवि धनजंय ने कहा है-“हे जिनेन्द्र! आपके उन्मुख रहने वाला सुख पाता है और विमुख रहने वाला कष्ट भोगता है। आप दर्पण के समान उन दोनों के समक्ष एक रूप में रहते हैं।"
दर्पण के समक्ष जैसा मुख व्यक्ति का रहता है, वैसा वह दिखता है। वह मुख को अच्छा-बुरा नहीं बनाता है। महान् आत्माओं की ऐसी ही कीर्ति सुनी जाती है। उनसे रूठनेवाला अहंकारी व्यक्ति कष्ट भोगा करता है। आचार्य महाराज की सेवा में संलग्न रहने वाले अनेक व्यक्ति यदि अपनी-अपनी कथा लिखें, तो एक पुराण बन जाय, जिससे यह पता चलेगा कि किस प्रकार हीन या मध्यम परिस्थिति में वे संपन्न, प्रतिष्ठित तथा समृद्ध हुए। अजैनों ने भी महाराज की भक्ति और सेवासे आनंद लिया है। धर्म और धार्मिक का शरण लेने वाला यथार्थ में सुख को प्राप्त करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org