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चारित्र चक्रवर्ती पाटील ने उपाध्याय को बुलाकर कड़े शब्दों में कहा-“साधूला मारतोस काय ? विधि का सांगत नाही ? साधु को मारेगा क्या ? विधि क्यों नहीं बताता ?" जब उपाध्याय ने ठीक-ठीक विधि बताई, तब पड़गाहना शुरू हुआ। गुरु स्मरण
वीरसागर महाराज ने जब यह कहा, उस समय गुरु के स्मरण से उनके नेत्रों में अश्रु छलछला पड़े थे-“खरे गुरु वे ही थे। उन्होंने मुनि बनकर मार्ग बताया।" विकट स्थिति
उस विकट स्थिति में जब कि अन्य अनेक मुनि आगमविरुद्ध वस्त्र धारण कर निर्णीत किये हुए घर में, एक प्रकार से आमंत्रित प्रदेश में आहार करते थे, तब निर्ग्रन्थ गुरू की चर्या के अनुसार प्रवृत्ति करना और मार्ग निकालना कितना कठिन काम था, इसकी सामान्य मनुष्य कल्पना नहीं कर सकता। वृत्तिपरिसंख्यान तप
आचार्य महाराज कोन्नूर में विराजमान थे। वहाँ का धार्मिक पाटील महाराज को आहार कराने के लिए निरन्तर उद्योग करता था, किन्तु महीनों बीतने पर भी उसका मनोरथ सफल नहीं हुआ। पाटील ने चन्द्रसागरजी से अपनी मनोव्यथा सुनाई।
चन्द्रसागारजी ने महाराज से पूछा-“महाराज पाटील के यहाँ योग्य विधि लगने पर भी आपका आहार वहाँ क्यों नहीं होता है ?" ___ महाराज बोले-“पाटिल के घर के चौके से पूर्व योग्य विधि मिलती है, तो उसको छोड़कर आगे कैसे जायें ?"इसके पश्चात् महाराज ने “वृत्ति-परिसंख्यान तप" के स्वरूप को दृष्टि में रखकर विशेष प्रतिज्ञाएँ लेनी शुरू की, इससे अनेक व्यक्तियों को आहार देने का सौभाग्य मिलने लगा। गंभीर प्रकृति
महाराज आहार में केवल दूध और चावल लेते थे। अत्यन्त बलवान और सुदृढ़ शरीर में वह भोज्य पदार्थ थोड़ी ही देर में पच जाता था, फिर भी महाराज ने यह कभी नहीं कहा कि गृहस्थ लोग विचारहीन हैं, एक ही पदार्थ को देते हैं।
एक दिन चन्द्रसागरजी ने कहा-“महाराज! आप दूध, चावल ही क्यों लेते हैं और भोजन क्यों नहीं करते?" कुछ देर चुप रहकर महाराज ने कहा- “जो गृहस्थ देते हैं, वह मैं लेता हूँ। इन्होंने दूध चावल ही दिये, दूसरी चीज दी ही नहीं, इसलिए मैं दूध और चावल ही लेता रहा।" इस प्रकार मनोगत को जानकर लोगों ने आहार में अन्य भोज्य पदार्थ देना प्रारम्भ किया।
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