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चारित्र चक्रवर्ती
जैसे कोई व्याघ्र से दूर भागता है, ऐसे बीमार से दूर रहा करते थे ।
आचार्य महाराज ने रुद्रप्पा की बीमारी का समाचार सुना। वे चुपके से रुद्रप्पा के पास चले गये । भय क्या चीज है, इसे वे जानते ही नहीं थे । उनका जीवन आदि से अन्त तक निर्भय भावों से भरा रहा है। मित्र रुद्रप्पा के पास पहुँचकर उन्होंने देखा कि उसकी अवस्था अत्यन्त शोचनीय है । उन्होंने सोचा कि ऐसे जीव का कल्याण करना मेरा कर्तव्य है। आचार्य महाराज ने कहा - " रुद्रप्पा, अब तुम्हारा समय समीप है । अब समाधिमरण करो । शरीर से आत्मा जुदी है। शरीर का ध्यान छोड़ो। रुद्रप्पा 'अरहंता' बोलो !” अब रुद्रप्पा के मुख से 'अरहंता' निकलने लगा ।
इनकी वाणी सुनकर उसे लगा कि जैनधर्म ही खरा (सच्चा) धर्म है। जैनगुरु ही सच्चे गुरु है । जैनशास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं । इनकी महिमा को कोई नहीं समझ सकता। उसके मन में श्रद्धा जगी। मिथ्यात्व की अँधियारी दूर हुई। उस समय उसका भाग्य जगा, ऐसा मालूम होता है, तभी तो वह जिनेन्द्र के नाम से प्यार करने लगा। अब उसके मुख पर अन्य नाम के लिए स्थान नहीं है । वह अरहता कहता है । वाणी क्षीण हो गई है अतः शब्दों का उच्चारण नहीं कर सकता, ओष्ठों का स्पन्दनमात्र होता है ।
महाराज कहते हैं-“रुद्रप्पा ध्यान दो। शरीर और आत्मा जुदे - जुदे हैं । अरहंत का स्मरण करो। "
इतने में शरीर चेष्टाहीन हो गया। अब रुद्रप्पा वहाँ नही हैं। समाधिमरण के प्रेमी शान्तिसागर महाराज ने अपने मित्र को सुपथ पर लगा दिया। सचमुच में उसकी सद्गति करा दी। ऐसी मैत्री आज कौन दिखाता है। आज तो भवसिन्धु में डुबाने वाले यार-दोस्त मिलते हैं। मोक्ष के मार्ग पर लगानेवाले सन्मित्र का लाभ दुर्लभ है।
ध्यान - सूत्र
प्रश्न- महाराज ! कृपाकर बताइये, क्या आपका मन लगातार आत्मा में स्थिर रहता है या अन्यत्र भी जाता है ?"
उत्तर- "हम आत्मचिंतन करते हैं। कुछ समय के बाद जब ध्यान छूटता है, तब मन को फिर आत्मा की ओर लगाते हैं। कभी-कभी मोक्षगामी त्रेसठ शलाका पुरुषों का चितवन करता हूँ ।"
मलिन भावों की दवा
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"कभी-कभी बुरा भी चिंतवन हो जाता है । उस समय मैं मन को कहता हूँ- 'अरे ! बिना कारण बुरे ध्यान में क्यों रहता है, शुभ ध्यान में रह ।' इससे मन फिर ठिकाने पर आ जाता है। मैंने भला-बुरा सब कुछ आपसे कह दिया । "
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