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चारित्र चक्रवर्ती लगभग भाषण हुआ था। विषय था 'ब्रह्मचर्य धर्म' । क्या आपने सुना था ?"
महाराज-“मैं ध्यान में बैठा था। मुझे तुम्हारे व्याख्यान का कुछ भी पता नहीं चला। ध्यान में बैठने पर पास में तुम नक्कारा भी बजाओ, तो पता नहीं चलता है। नदी या तालाब के जल में डुबकी लगाने पर बाहर का पता नहीं चलता। मैं आत्मचिंतन में निमग्न था। उस समय बाहर का कुछ भी ज्ञान नहीं था। हम जैसा होता है, वैसा बताते हैं।" ____ मैं आश्चर्य में पड़ गया। महाराज के अति समीप उच्च स्वर में दिए गए लम्बे भाषण का भी उनको आत्मचिंतन काल में पता नहीं चला। धन्य है ऐसी आत्मध्यान की अपूर्व क्षमता। स्व० आचार्य शांतिसागर महाराज भी अपने ध्यान के विषय में ऐसा कहते थे कि “हम बीच बाजार में बैठकर आत्मा का ध्यान कर सकते हैं। आत्मा में निमग्न होने पर बाजार क्या बाधा उत्पन्न करेगा।" इस कथन का प्रत्यक्षीकरण वर्धमान स्वामी में हमने देख लिया। तत्त्वज्ञानी साधु अभ्यास के द्वारा असंभव बातों को संभव कर लिया करते हैं। संसार एक खेल है
व्रतों की द्वादशी को मन्दिरजी के चौक में स्थानीय श्राविकाश्रम की छोटी-छोटी बालिकाओं ने कुछ खेल दिखाए। उसे देखते हुए महाराज ने मुझसे कहा-“यह तो बच्चों का खेल है, किन्तु संसार ही एक खेल है, आत्मा इस खेल से पृथक् है। इसको हम नहीं भूलते हैं। संसार में जीव मोह के कारण नाचते-कूदते हैं।"वास्तव में स्वतत्त्व की जिनको उपलब्धि हो चुकी है, उनकी दृष्टि, उनकी वाणी, उनकी चर्या में एक विलक्षण ज्योति, मधुरता, सरसता तथा सजीवता का दर्शन होता है। विनम्रता ___ एक दिन प्रभातकाल में महाराज कहने लगे-“नाम सोनूबाई और पास में सुवर्ण न हो, उसी प्रकार मैं सामान्य स्थिति का हूँ और लोग मुझे बड़े-बड़े नामों से पुकारते हैं। कोई मुझे चारित्र चूड़ामणि कहता है, कोई आचार्य कह बैठता है। अरे बाबा ! ये बहुत बड़े पद हैं। मैं इतना महान् नहीं हूँ।" मुनिपद का महत्व
८ सितम्बर को आहार के उपरान्त महाराज ने कन्नड़ी में मुझ से कुछ कहा। मैंने पूछा- “महाराज आपने क्या कहा ?"
उन्होंने कहा-“बैठ जाओ, यह कहा है।" बैठने के पश्चात् उन्होंने हमसे पूछा"बताओ, हमने घर छोड़कर मुनि का पद क्यों धारण किया? क्या भोजन के लिए ? लज्जा छोड़कर दूसरे के घर में खड़े भिक्षावृत्ति से आहार के लिए क्या मुनिपद लिया?
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