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चारित्र चक्रवर्ती संवेग भावना
एक बार महाराज, नेमिसागर महाराज तथा ब्र. बन्डू रत्तू सांगली की तरफ जा रहे थे। मार्ग में तीन हरिजन स्त्रियों ने इस मुनियुगल को देखा और तिरस्कारपूर्वक इन दिगम्बर साधुओं का महान् उपहास किया। उस समय महाराज ने आपस में चर्चा करते हुए कहा"हमने अनादिकाल से संसार भर की हँसी की। अब हमारी हँसी हो रही है, यह उसका ही तो फल है। इसमें हमारा क्या नुकसान है ?"कुछ समय के पश्चात् कुछ मुसलमान आ गये। उनकी डॉट से वे नारियाँ चुपके से चली गई। संघ में निवास की आवश्यकता
साधुओं को अपने मन को सदा सावधान रखना आवश्यक है। न जाने कब इन्द्रिय रूपी डाकू आक्रमण कर उनकी संयम निधि को लूटने को तैयार जो जाये ? आचार्यश्री सदा कहा करते थे कि मुनियों को संघ में रहना चाहिये । शत्रु भी यदि साधु बने, तो उसे भी संघ में विहार करने को कहना चाहिये। आज मुनियों में स्वतंत्र विहार की प्रवृत्ति बढ़ रही है। __ आचार्य महाराज की दृष्टि से मुनियों का कल्याण तथा धर्म संरक्षण इसमें है कि वे संघ बनाकर रहें। ऐसे प्रसंग पर जब मनुष्य का पतन दुर्बलतावश होता है या दुष्टों का समागम होता हैं, तब संघस्थ साधु अधिक सुरक्षित रहता है और उसे अपनी धार्मिक मर्यादा में स्थिर रहने की बहुत प्रेरणा मिलती है। संघ में रहने से बहुत हित होता है। बालक का समाधान
आचार्य महाराज सन् १९५३ में बारसी में विराजमान थे। उत्तर भारत का एक बालक अपने कुटुम्बियों के साथ गुरुदेव के दर्शन को आया। वह बच्चा लगभग ४ वर्ष का था। उसने पहले महाराज का साँपयुक्त चित्र देखा था। इससे वह महाराज से बोला-“तुम्हारा साँप कहाँ है ?" महाराज बच्चे के आशय को समझ गए। वे मुस्कराते हुए बोले, “वह साँप अब यहाँ नहीं है। वह तो चला गया।" महान् जिनेन्द्र भक्ति
कुंथलगिरि में आचार्यश्री की इच्छानुसार मैसूर राज्य से एक १५ फुट ऊँची प्रतिमा को लाने का विचार चला था। बाहुबलि स्वामी की एक सुन्दर मूर्ति मिल गई। उस प्रतिमा की फोटो आचार्यश्री के समक्ष एक सितम्बर १९५५ को दिखायी गई। वह उपवास का १९ वाँ दिन था। फोटो देखते ही उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु की धारा प्रवाहित हो गई। महाराज बोले, “मेरी इच्छा पूर्ण हो गई।"सच्चे सम्यक्त्वी को जिस प्रकार वीतराग की छवि आनन्द देती है, उसी प्रकार का आनन्द इन साधुराज का था। यह मूर्ति मैसूर से २४ मील दूरी पर है। महाराज को विश्वास दिलाया गया था कि शीघ्र ही मूर्ति
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