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पावन समृति
भक्ति भाव भादों नदी, सबै चली घहराय । सरिता सोई जानिये, जेठ मास ठहराय ॥
धर्मसूर्य
महाराज का जीवन तपोमय था । उन्होंने धर्म का सूर्य बनकर स्व तथा पर का प्रकाशन किया । जिस प्रकार प्रभापुंज भास्कर भी कुछ जीवों की दर्शन - शक्ति के बाधक बन जाता है, इसी प्रकार ऐसी भी आत्माएँ मिलेंगी, जो इन तेजोमय विभूति के महत्व को स्वीकार करने में अक्षम हों। जिन जीवों को कुयोनियों में परिभ्रमण करना है, उनकी आत्मा सत्कार्यो से द्वेष करती है। अच्छी बातों के बारे में अनुभूति की क्षमता उनमें नहीं रहती है, जैसे पक्षाघात लकवा पीड़ित व्यक्ति के अङ्गो में सप्राणता की शून्यता आ जाती है।
आचार्यश्री का प्रभाव
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आचार्य महाराज कटनी चातुर्मास के पश्चात् जबलपुर आते समय जब बिलहरी ग्राम पहुँचे, तो वहाँ के लोग पूज्यश्री की महिमा से प्रभावित हुए। वहाँ के सभी कुएँ खारे पानी थे । एक स्थान पर आचार्य महाराज बैठे थे। भक्त लोगों ने उसी जगह कुआँ खोदा । वहाँ बढ़िया और अगाध जल की उपलब्धि हुई। आज भी गाँव के लोग इन साधुराज की तपस्या को याद करते हैं।
कटनी की जैन शिक्षासंस्था के २० फुट ऊँचे मंजिले पर एक ३ वर्ष का बच्चा बैठा था । एक समय और बालकों ने आचार्य महाराज का जयघोष किया। वह बालक भी मस्त हो महाराज की जय कहकर उछला और नीचे ईंट, पत्थर के ढेर पर गिरा किन्तु कोई चोट नहीं आई। सुयोग की बात थी, जिस कोने पर वह गिरा, उस जगह पत्थर आदि का अभाव था । सब कहते थे- "यह आचार्य महाराज के पुण्यनाम का प्रभाव है।"
कटनी में एक प्राणहीन सरीखा आम का वृक्ष था। वह फल नहीं देता था। एक बार उस वृक्ष के नीचे आचार्यश्री का पूजन हुआ। तब से वह डाल फल गई, जिसके नीचे वे साधुराज विराजमान हुए थे। इस घटना से सभी कटनी वासी परिचित हैं।
सिंहदृष्टि
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सिंह की दृष्टि तत्व पर रहती हैं। वह लाठी प्रहार करने वाले या बन्दूक मारने वाले पर प्रहार करता है। इसी प्रकार महाराज संकट के समय दूसरों को दोष न देकर, अपने कर्मों को ही उस विपत्ति का कारण मानते थे। दूसरों पर दोष रखकर अपने को उज्ज्वल बताने की लौकिक प्रवृत्ति उनमें नहीं पायी जाती थी । वे स्वश्रयी, स्वावलम्बी, आगमप्राण महात्मा थे।
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