________________
पावन समृति सहन कर रहे थे। उनका नर-जन्म सार्थक था।
पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में तृषा-परीषहजय पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि-"मुनिराज प्यासरूप अग्नि की ज्वाला को धैर्यरूपी नवीन मृत्तिका के घट में भरे हुए शीतल सुवासपूर्ण समाधिरूप जल के द्वारा बुझाते हैं।" उस स्थिति में धैर्य औरसमाधि के द्वारा आचार्यश्री के शांति अखंड थी।
तीसरा दिन आया, उस दिन भी दातार की बुद्धि जल देने की बात को विस्मरण कर गई। इस प्रकार आठ दिन बीत गए।
नवें दिन महाराज के शरीर में छाती पर बहुत-से फोड़े उष्णता के कारण आ गए। शरीर के भीतर की स्थिति को कौन बतावे ? शरीर की ऐसी कठिन परिस्थिति में भी वे सागर की भाँति गम्भीर ही रहे आए।
दसवें दिन अन्तराय कर्म का उदय कुछ मन्द पड़ा। उस दिन के दातार गृहस्थ ने महाराज को जल दिया। कारण अन्य आहारयोग्य शरीर न था। महाराज ने जल ही जल ग्रहण किया और वे बैठ गए।
पश्चात् गम्भीर मुद्रा में उन साधुराज ने कहा था, “शरीर को पानी की जरूरत थी और तुम लोग दूध ही डालते थे। चलो ! अच्छा हुआ। कर्मो की निर्जरा हो गई।" साधुओं का मूल्य आँकने वाले सोचें, ऐसी तपस्या कहाँ है ? ऐसी स्थिति में भी वे अशान्त न हुए। शांति के सागर रहे। शिथिलाचारी का शोचनीय पतन
आज के युग में ऐसी तपस्या एक दिन भी कठिन दिखती है। लगभग बाईस वर्ष हुए, उत्तर प्रान्त में एक अत्यन्त प्रख्यात तपस्वी साधु को रात्रि के समय पिपासा की असह्य पीड़ा उत्पन्न हुई, तो शिथिलाचारी दो पंडितों ने उनसे कहा-“यह आपत्ति का काल है। इस समय आपको जल ले लेना चाहिये जिससे क्लेश न हो।" होनहार विचित्र थी। उन विवेकभ्रष्ट पंडितों तथा उसी प्रकृति के बड़े धनिक की प्रेरणा को पाकर उन साधु ने प्यास की पीड़ा को सहन करने की असमर्थतावश अपनी महान् प्रतिज्ञा को भ्रष्ट कर दिया। कुछ समय के पश्चात् परलोक प्रयाण किया। उनकी प्रवृत्ति आगम की मर्यादा से बँधी नहीं थी। कुछ पथभ्रष्ट शास्त्रियों के इशारे पर उनकी प्रवृत्ति रहती थी। वे स्वच्छंद आचार करते थे। धर्मात्मा की दृष्टि
इस घटना तथा उनकी मृत्यु की खबर जब आचार्य शांतिसागर महाराज को मिली, तब वे एक तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध जीव के पतन को देख विविध प्रकार के विचारों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org