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चारित्र चक्रवर्ती निमग्न हो गए। आचार्य महाराज ने मुझसे कहा था-"कभी भी व्रत को भंग नहीं करना चाहिए। प्राण जाते हुए भी प्रतिज्ञा की रक्षा करना चाहिए।” पुराणों में हम पशुओं आदि का भी उच्च विकास देखते है, क्योंकि उन जीवों ने व्रत का पालन करने में आश्चर्यकारी स्थिरता रखी है।
प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि संयम धारक को व्रतों से डिगने की बात कभी भी न कहे। इस प्रकार की प्रणाली से स्व तथा पर की निश्चय से दुर्गति हुए बिना नहीं रहती है। कृत, कारित तथा अनुमोदना में भी समान फल होता है। पापोदय से शास्त्रज्ञ भी इस तत्व को भूल जाता है। मोहनीय कर्म बड़ो-बड़ों को अंधा बना देता है। ___ आश्चर्य है, ऐसे लोग स्थिरता की वृद्धि के हेतु सुकौशल-सुकुमाल, राजकुमार आदि के कथानकों को पूर्णतया भुला देते हैं और सामान्य श्रेणी के भी त्यागी को समन्तभद्र मान, समन्तभद्र सदृश बनने की बात सुझाते हैं। वे यह नहीं सोच सकते कि आचार्य समंतभद्र अपनी श्रेणी के एक ही हुए हैं। विपरीत स्थिति में भी उनका अनुपम सम्यक्त्व भाव सजग रहा है। पाषाण-राशि फटकर, भगवान् चंद्रप्रभ तीर्थंकर की मूति का प्रगट होना उनकी ही श्रेष्ठ श्रद्धा का फल था। उन श्रेष्ठ महापुरूष की श्रेणी में साधारण मनुष्य को बैठाकर संयम के निरादर की प्रेरणा देना खोटे भविष्य की सूचना देता है। कर्तव्य
हमारा कर्तव्य है कि आचार्य महाराज की उज्ज्वल तपस्या को स्मरण करें और अपने जीवन को उच्च बनावें। दूसरों को भी आत्म-विकास की प्रेरणा दें। विपत्ति में ग्रस्त दुःखी व्यक्ति को पाप की ओर ढकेलना एक प्रकार से अंधे आदमी की आँख में धूल झोंकने सदृश बात होगी:
'अंध असूझन की अखियन में झांकत हैरत आत्म दुहाई । यह कार्य महापापी ही करते हैं। आगम का प्रकाश
महापुराण में प्रतिपादित दंड महाराज नामक विद्याधर का यह चरित्र ध्यान देने योग्य है। भोगों की आसक्ति के कारण दंड राजा मरकर आर्तध्यान वश अपने खजाने में अजगर हुआ था। उसे जातिस्मरण हो गया था, अतः वह अपने पुत्र मणिमाली को ही खजाने में घुसने देता था। अन्य को नहीं जाने देता था। अवधिज्ञानी मुनि से मणिमाली को अपने पूज्य पिता का पतन ज्ञात हुआ। उसने अजगर की आत्मा को धर्म का अमृत पिलाया। . उससर्पराजने वैराम्ययुक्तकोआहारत्याग किया तथाशरीर छोड़कर वह महान् ऋद्धिधारी देव हुआ। देव होने पर उसने अपने पुत्र को एक मणियों का शोभायमान हार दिया था।
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