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पावन समात अत्यन्त निकृष्ट वृत्ति वाला सर्प तक संयम धारण करता है औरसंयमी मानव उस संयम को छोड़ता है, यह कितने आश्चर्य की बात है। अध्यात्म का विपरीत, भाव लेने वालों को ऐसे ही कामों में संतोष मिलता है। ऐसे जीव मरणकर कुगति में कुकर्म का फल रोते-रोते भोगा करते हैं। कर्म किसी पर रहम नहीं करते। शरीर निस्पृह साधुराज
महाराज ज्ञान-ज्योति के धनी थे। वे शरीर को पर-वस्तु मानते थे। उसके प्रति उनकी तनिक भी आसक्ति नहीं थी।
एक दिन पूज्य गुरुदेव से प्रश्न पूछा गया-“महाराज! आपके स्वर्गारोहण के पश्चात आपके शरीर का क्या करें ?" उत्तर-“मेरी बात मानोगे क्या ?" प्रश्नकर्ता-“हाँ महाराज ! आपकी बात क्यों न मानेंगे?"
महाराज-“मेरी बात मानते हो, तो शरीर को नदी, नाला, टेकड़ी आदि पर फेंक देना। चैतन्य के जाने के पश्चात् इसकी क्या चिन्ता करना?"
यह बात सुनते ही प्रश्नकर्ता ने विनयपूर्वक कहा-“महाराज! क्षमा कीजिए। ऐसा तो हम नहीं कर सकते, शास्त्र की विधि क्या है ?"
तब उनको दूसरी विधि कही थी कि-"मृत शरीर को विमान पर पद्मासन से बिठाकर देह का दहन-कार्य किया जाता है। फिर बोले-"हमारे पीछे जैसा दिखे, वैसा करो।" पार्श्वमती अम्मा
आचार्य महाराज के लोकोत्तर जीवन -निर्माण में उनके माता-पिता की श्रेष्ठता को भी एक कारण कहना अनुचित न होगा। पश्चिम के विद्वान व्यक्ति की उच्चता में माता को विशेष कारण कहते हैं। नैपोलियन का जीवन उसकी माता से बहुत प्रभावित था। माता सत्यवती की जीवनी लोकोत्तर थी, जिस जननी ने आचार्य शांतिसागर और महामुनि वर्धमानसागर सदृश दो दिगम्बर श्रेष्ठ तपस्वियों को जन्म दिया। आज के युग में ऐसी माता की तुलना के योग्य कौन जननी हो सकती है ? माता सत्यवती से क्षुल्लिका पार्श्वमती अम्मा का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था। माता सत्यवती का उज्ज्वल चरित्र
उक्त अम्मा ने हमें कुंथलगिरि में माता सत्यवती आदि के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें सुनायी थीं। वे कहती थी-“माता सत्यवती बहुत भोली, मंदकषायी, साध्वी तथा अत्यन्त सरल स्वभाव वाली थी। प्रति दिवस एकासन करतीर्थी पति की मृत्यु के पश्चात केश कटवाकर माता ने वैधव्य दीक्षा ली थी। सफेद वस्त्र पहनती थी। यथार्थ में माता
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