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चारित्र चक्रवर्ती समय धर्मध्यान में व्यतीत होताथा। आजी ने तीन दिन पर्यन्त सल्लेखना ग्रहणकर शीरीर त्याग किया था।"
भीम ने कुथलगिरि में अपने सगे बाबा आचार्य महाराज के दर्शन किए थे। भीम ने कहा"महाराज ने हमसे अधिक बात नहीं की। उन्होंने हमें अपना पवित्र आशीर्वाद दिया था।" आठवें दिन आहार लेने वाले मुनि
तपस्या करने वाले और भी मुनिराज दक्षिण में हुए हैं। बोरगाँव के मुनि आदिसागर आठ दिन के बाद आहार लिया करते थे। जब वे भोज आते थे, तो उनको आहार देने का सौभाग्य सातगोंडा को ही प्रायः प्राप्त होता था। वे अद्भुत प्रवृत्ति के थे। एक-तारा वाद्य द्वारा भजन गाते थे, इत्यादि । शास्त्रों का ज्ञान न रहने से कई बातें आगमविरूद्ध भी हुआ करती थी। यह विशेष बात थी, जहाँ उत्तर में महाव्रती का अभाव हो गया था, वहाँ दक्षिण में उसका सद्भाव तो था। एकान्तवास से प्रेम
आचार्य महाराज को एकान्तवास प्रारम्भ से ही प्रिय लगता रहा है। भीषण-स्थल में भी वे एकान्त निवास को पसन्द करते थे। वे कहते थे-“एकान्त भूमि में आत्मचिंतन
और ध्यान में चित्त खूब लगता है।" जब महाराज बड़वानी पहुंचे थे, तो बावनगजा (आदिनाथ की मूर्ति) के पास के शांतिनाथ भगवान् के चरणों के समीप अकेले रात भर रहे थे। किसी को वहां नहीं आने दिया था। साथ के श्रावकों को पहले ही कह दिया था, आज हम अकेले ही ध्यान करेंगे। बढ़िया ध्यान
पूज्यश्री की यह विशेषता रही है कि जहाँ एकान्त रहता था, वहाँ उनका ध्यान बढ़िया होता था, किन्तु जहां एकान्त नहीं रहता था, वहाँ भी उनका ध्यान सम्यक् प्रकार से सम्पन्न हुआ करता था। उनका अपने मन पर पूर्ण अधिकार हो चुका था। इन्द्रियाँ उनकी आज्ञाकारिणी हो गई थी। अतः जैसा उनकी आत्मा आदेश देती थी, वैसी ही स्थिति इन्द्रिय तथा मन उपस्थित कर देते थे। दिव्यदृष्टि
दर्पण जितना स्वच्छ होता है, उतना ही निर्मल प्रतिबिम्ब बाहर के पदार्थ का उसमें स्वतः दिखाई पड़ता है। आचार्यश्री का अन्तःकरण आदर्श सदृश था। जिनका सारा जीवन आदर्श रहे, उनका हृदय भी सहज ही आदर्श (दर्पण) रूप हो, यह पूर्ण स्वाभाविक है। उनकी चित्तवृत्ति में अनेक बातें स्वयंमेव प्रतिबिम्बित हुआ करती थी।
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