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चारित्र चक्रवर्ती शास्त्रदान की प्रेरणा तथा शास्त्र के व्यापार का निषेध
महाराज कहा करते थे-“शास्त्र दान करो। इसमें बड़ी शक्ति है। शास्त्रदान से केवली होता है। शास्त्र के व्यापार से ज्ञानावरण का बंध होता है। शास्त्र के शब्द अंजन चोर के कान में पड़े थे। उससे उसकी सद्गति हुई। शास्त्र के द्वारा सब जीवों का हित होता है।" मार्मिक विनोद
आचार्यश्री सदा गंभीर ही नहीं रहते थे। उनमें विनोद भी था, जो आत्मा को उन्नत बनाने की प्रेरणा देता था। कुंथलगिरि में अध्यापक श्री गो. वा. वीडकर ने एक पद्य बनाया और मधुर स्वर में गुरुदेव को सुनाया। उस गीत की पंक्ति थी-“ओ नींद लेने वाले, तुम जल्द जाग जाना।" उसे सुनकर महाराज बोले-“तुम स्वयं सोते हो और दूसरों को जगाते हो। 'बगल में बच्चा, गाँव में टेर'-कितनी अद्भुत बात है।" यह कहकर वे हँसने लगे। विहार करते समय
सन् १९५३ में कुंथलगिरि में चातुमास के उपरान्त महाराज का एकदम प्रस्थान हो गया। उनके मन की बात को साथ के मुनि नेमिसागर महाराज भी नहीं जानते थे।आचार्यश्री ने एक दिन कहा था, “हम किसी की नहीं सुनते हैं। हमारा अंतःकरण जैसा कहता है, वैसा हम करते है।" सचमुच में लोकोत्तर पुरुषों की अंतरात्मा (inner voice) जो कहती है, तदनुसार उनकी प्रवृत्ति होती है। पुण्य जीवन होने के कारण उनकी पवित्र आत्मा के द्वारा सदा सम्यक् पथ-प्रदर्शन होता है। जाते-जाते वे बोले-"आम्ही जात नाही पुनः येथे येऊ। मी हे स्थान पसंद केले आहे"-"मैं नहीं जा रहा हूँ। पुनः यहाँ आऊंगा। मुझे यह स्थान पसन्द आ गया है।"
अपने जाने का कारण मुनिनाथ ने कहा-"मुनि एक स्थान पर निरन्तर नहीं रहते। स्थानान्तर में जाना जरूरी है।"
इस प्रसंग में मुनि नेमिसागर महाराज ने कहा-"जिस प्रकार नदी का प्रवाह एक जगह स्थिर नहीं रहता है, उसी प्रकार मुनियों का भी सदा विहार होता रहता है।" ।
इस पर एक भक्त ने कहा-"महाराज! आप नदी हैं कहाँ ? आप तो सागर हैं। सागर तो एक ही जगह रहता है।" यह बात सुनते ही आचार्यश्री के मुखमंडल पर मधुर स्मित की आभा आ गई। उन्होंने कहा-“हम शीघ्र फिर यहाँ आवेंगे। उनकी वाणी पूर्ण सत्य रही।" आत्मभवन का निर्माता
आचार्य श्री के पास बैठने वाले छोटे-बड़े सभी व्यक्तियों को विशेष स्फूर्ति प्राप्त होती थी। जब महाराज मौन से बैठते थे, तब भी उनके समीप रहने से मन को प्रसन्नता प्राप्त
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