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पावन समृति
४२४ स्वामी के बदले में गड़ी-बाहरी आदमी की तरह रहते थे।" उदास परिणाम
उनके ये शब्द बड़े अलौकिक है - "जीवन में हमारे कभी भी आर्तध्यान, रौद्रध्यान नहीं हुए। घर में रहते हुए हम सदा उदास भाव में रहते थे। हानि-लाभ, इष्ट-वियोग, अनिष्टसंयोग आदि के प्रसंग आने पर भी हमारे परिणामों में कभी भी क्लेश नहीं हुआ।"
"हमने घर में ५ वर्ष पर्यंत एकासन की ओर ५ वर्ष पर्यत धारण-पारणा अर्थात् एक उपवास, एक आहार करते रहे।"
मित्र
रुद्रप्पा नामक मित्र के बारे में उन्होंने बताया था-“वह श्रीमंत का पुत्र था। वह अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके घर में चुपचाप बैठा रहता था। वह और किसी से बात नहीं करता था। हमसे बात करता था और हम पर बड़ा स्नेह करता था। वह पक्का सत्यभाषी था।" अपना स्वभाव
महाराज ने अपने विषय में कहा-“हम कहते थे, तो बिना दस्तखत कराये लोग हजारों रुपया दे देते थे। हमारा कभी भी किसी से झगड़ा नहीं होता था। हम कभी भी दूसरे की निंदा के काम में नहीं पड़े। पिता की मृत्यु के बाद शीघ्र ही हमने दीक्षा ली। ५ वर्ष पर्यंत हमने केवल दूध और चावल लिया था। निमित्त कारण का महत्व __महाराज ने कहा था-"निमित्त कारण भी बलवान है। सूर्य का प्रकाश मोक्ष मार्ग में निमित्त है। यदि सूर्य का प्रकाश न हो तो मोक्षमार्ग ही न रहे। प्रकाश के अभाव में मुनियों का विहार-आहार आदि कैसे होंगे?"
उन्होंने कहा-"कुंभकार के बिना केवल मिट्टी से घट नहीं बनता। इसके पश्चात् उसका अग्निपाक भी आवश्यक है।" जो निमित्त कारण को अकिंचित्कर मानते हैं, वे आगम और अनुभव तथा युक्तिविरुद्ध कथन करते हैं। आत्मचिंतन द्वारा निर्जरा
सन् १९५४ के पर्दूषण में महाराज ने फलटण में अपने उपदेश में कहा-“पाँच से पंद्रह मिनिट पर्यन्त आत्मचिंतन करो। इससे निर्जरा होती है। इससे सम्यक्त्व होगा। दान-पूजा से पुण्य होता है। जन्म पर्यन्त आत्मा का चिंतन करो।" तिलोयपण्णत्ति में भगवान् की पूजा को कम्मक्खवणणिमित्तं (८-५८८) कर्मक्षय का निमित्त कारण कहा है। दान-पूजा द्वारा पाप क्षय होता है और पुण्य का बंध होता है।
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