________________
४२७
चारित्र चक्रवर्ती
गया। उसके पश्चात् तीनों साथी भी वृक्ष पर चढ़ गए। शेर ने अपना रौद्ररूप दिखाना प्रारम्भ किया। चौथा साथी बड़ा बुद्धिमान तथा तांत्रिक था । उसने अपने मित्रों से सारी संकट की कथा का रहस्य जान लिया। उसने मांत्रिक मित्र से कहा- 'डरने की कोई बात नहीं है। तुमने ही तो काष्ठ के शरीर में अपने मंत्र द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा की थी। तुम अपनी शक्ति को वापिस खींच लो, तब जड़रूप व्याघ्र क्या करेगा ?' मांत्रिक ने वैसा ही किया । व्याघ्र पुनः जड़रूप हो गया ।"
"इस दृष्टान्त का भाव यह है कि जीव स्वयं रागद्वेष द्वारा संकट रूप शेर के शरीर में प्राणप्रतिष्ठा करता है। यह चाहे तो रागद्वेष को दूर करके कर्मरुपी शेर को समाप्त भी कर सकता है। रागद्वेष के नष्ट होने पर कर्म क्या कर सकते है ? राग-द्वेष के नष्ट होते ही शीघ्र संसार भ्रमण दूर होकर जीव मुक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करता है ।" कथा द्वारा शिक्षा
आचार्य महाराज ने बड़वानी की तरफ वंदनार्थ विहार किया था। संघ के साथ में तीन धनिक गुरुभक्त तरुण भी थे । वे बहुत विनोदशील थे। उनका हासपरिहास का कार्यक्रम सदा चलता था । उन तीनों को विनोद में विशेष तत्पर देखकर आचार्यश्री ने एक शिक्षाप्रद कथा कही :
" एक बड़ी नदी थी। उसमें नाव चलती थी। उस नौका में एक ऊँट सवार हो गया। एक तमाशेवाले का बन्दर भी उसमें बैठा था। इतने में एक बनिया अपने पुत्र सहित नाव में बैठने को आया । चतुर धीवर ने कहा - "इस समय नौका में तुम्हारे लड़के को स्थान नहीं दे सकते। यह बालक उपद्रव कर बैठेगा, तो गड़बड़ी हो जायगी।"
चालाक व्यापारी ने मल्लाह को समझा-बुझाकर नाव में स्थान जमा ही लिया। पैसा क्या नहीं करता। नौका चलने लगी। कुछ देर के बाद बालक का विनोदी मन न माना । बालक तो बालक ही था । उसने बंदर को एक लकड़ी से छेड़ दिया ।
चंचल बंदर उछला और ऊंट की गर्दन पर चढ़ गया। ऊँट घबड़ा उठा। ऊँट के घबड़ाने से नौका उलट पड़ी और सबके सब नदी में गिर पड़े। ऐसी ही दशा बिना विचारकर प्रवृत्ति करने वालों की होती है। बच्चे के विनोद ने संकट उत्पन्न कर दिया। इसी प्रकार यदि अधिक गप्पों में और विनोद में लगोगे, तो उक्त कथा के समान कष्ट होगा। गुरुदेव का भाव यह था, कि जीवन को विनोद में ही व्यतीत मत करो। जीवन का लक्ष्य उच्च और उज्ज्वल कार्य करना है।"
आचार्य महाराज सन् १९२४ के लगभग अकलूज में पधारे थे। वहाँ एक संपन्न, धार्मिक तथा प्रभावशाली जैन बन्धु थे। उनकी धार्मिक प्रवृत्ति देखकर महाराज ने कहा'पहिले राजा दीक्षा लेते थे । उनका अनुकरण जनता किया करती थी। आज तुम्हारे सरीखे
66
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International