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चारित्र चक्रवर्ती change himself into monkey and back to his human form again.
Thus the changeability of form is a wellknown phenomenon. The Gods in Jainism have all a body, which they can change at will, it is their vaikriyaka body. They possess it universally like their antipodean analogues to the denzens of the niether world, the embodied mundane souls of the hell. The body has no flesh, blood and bones and there are no filthy excretions from it. It is very lustrous and bright. It may be compared to a cloud shot with the shining glory of a rising or setting sun now looking like one living being now changing itself into another form.
(The Bright Ones in Jainism, page 3) आठ सागर की स्थिति वाले देवों का आहार आठ हजार वर्षों के बाद होता है। आहार के समय उनके कण्ठ में अमृत झर जाता है, उससे उनको सर्व प्रकार की शांति और आनन्द प्राप्त होता है। इस विषय में सर्वज्ञ भगवान् ने यह बात कही है:
"जो देव जितने सागरोपम काल तक जीवित रहता है, उसका उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहने वाले देव के पाँच दिन में आहार होता है। (ति.प.,८-५५२)
इनका मूल शरीर स्वर्ग में रहता है। इनके शरीर की विक्रिया बाहर जाती है।
आगम में कहा है, "गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्मस्थानों में चेष्टा करते हैं। “जम्मणठाणेसु सुहं मूल सरीराणि चेट्ठति ।(ति. प., ८-५९५)" लौकान्तिकों की विशेषता
अन्य देव तो आमोद-प्रमोद, क्रीड़ा आदि द्वारा अपना सागरों का समय पूर्ण करते हैं।
लौकान्तिकों के बारे में तिलोयपण्णत्ति में लिखा है-“वे देव सब देवों से अर्चनीय, भक्ति में तल्लीन और सर्वकाल स्वाध्याय में निमग्न रहते हैं-भत्ति पसत्ता संज्झयसाधीणा सव्वकालेसु (तिशपश, ८-६४५)।"
इस प्रसंग में यह बात स्मरण योग्य है कि बाल्यकाल में सातगौड़ा पाटील के रूप में आचार्य महाराज भी बाल्योचित क्रीड़ा आदि से विमुख रहा करते थे। त्रिलोकसार में नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने लिखा है :
ते हीणाहिय रहिया विसयविरत्ता य देवरिसिणामा। अणुपिक्ख दत्तचित्ता सेससुराणच्चणिज्जा हु ।।५३६।।
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