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चारित्र चक्रवर्ती पावन उपदेश
एक बात और ध्यान देने की है कि वे अपना पावन उपदेश क्या दे गये। इस कलिकाल में भी अपनी जीवनी द्वारा श्रेष्ठ रत्नत्रय धर्म का पालन किस प्रकार हो सकता है, यह बता गए। बस, उनके पथ-चिन्हों को देखकर जो जीव आगे बढ़ेगा, वह शांति समृद्धि, वैभव के साथ शिवपुरी का नागरिक भी बन सकेगा। संसार के दुःखों से संत्रस्त भव्यात्माओं को वह वाणी चिरस्मरणीय रहेगी, “बाबानो ! भिऊ नका।” “आत्मचिंतन करा" अरे बाबा! डरो मत। आत्मा का चिंतन करो।"
सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र के ये शब्द चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज सदृश उज्जवल आत्माओं में सुघटित होते हैं (त्रिलोकसार, ५५५) :
विविह-तव-रयण-भूसा णाणसुची सीलवत्थ-सोम्मंगा।
जे ते सिमेव बस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ॥ अर्थ : जो विविध तप रत्नभूषणधारी, पवित्र ज्ञान वाले, शीलरूप वस्त्र से सौम्य शरीर वाले होते हैं, सुरलक्ष्मी तथा सिद्धीलक्ष्मी भी उनके आधीन रहती है। सल्लेखना का संक्षिप्त विवरण _आचार्य महाराज ने कुंथलगिरि में १४ अगस्त, रविवार को नियम-सल्लेखना का निश्चय व्यक्त किया था। उन्होंने यह सल्लेखना आठ दिन के लिए ली थी। ता .१७ दिन बुधवार को उन्होंने यम सल्लेखनारूप अपनी प्रतिज्ञा कर ली। उस दिन अमावस्या थी। उसी दिन पहाड़ पर आ गए। वहाँ उन्होंने ता. २० अगस्त को केवल जल लिया था। ता. २३ को पुन: जलग्रहण किया था। ता. २४ को उन्होंने जल नहीं लिया। उन्होंने ता. २५ से ता. २८ पर्यन्त चार दिन लगातार जल लिया था। ता. २८ रविवार को ब्र. भरमप्पा को क्षुल्लक दीक्षा दी। पश्चात् २६,३०,३१ तथा १ सितम्बर, इन चार दिनों तक उन्होंने जल ग्रहण नहीं किया। पश्चात् २, ३ और ४ तारीख को उन्होंने जल लिया। वही उनका अंतिम जलग्रहण दिन था। उन्होंने रविवार १४ अगस्त से आहार त्यागकर केवल जलमात्र ग्रहण करने की छूट रखी थी। चार सितम्बर का रविवार आया। उस दिन जल लेकर उन्होंने जल भी छोड़ दिया और एक रविवार को छोड़कर दूसरे रविवार को ८४ वर्ष से सुरक्षित शरीर को भी छोड़कर इस आध्यात्मिक विभूति ने स्वर्ग को प्रयाण किया था। मृत्यु से युद्ध की तैयारी
महाराज का जीवन बड़ा व्यवस्थित और नियमित रहा था। यम-समाधि के योग्य अपने मन को बनाने के लिए उन्होंने खूब तैयारी की थी। लोणंद से जब आचार्य महाराज फलटण आये, तब उन्होंने जीवन भर अन्न का परित्याग किया था। कुंथलगिरि पहुंचकर
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