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पावन समृति
४१४ स्मरण करें। हम दृढ़ता से कहते हैं कि पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से शरीर की पीड़ा शीघ्र ही दूर हो जायेगी और शांति मिलेगी।"
प्रश्न-“महाराज! कोई-कोई यह सोचते हैं, कि संजद शब्द धवल सिद्धान्त में रखने वालों की कार्यवाही से आपने दूध का त्याग कर दिया और लम्बे-लम्बे उपवास लिये थे। इसमें क्या सत्य है ?" समाधि की तैयारी
उत्तर-“हमने कह दिया है कि उपवास का कारण समाधि की तैयारी है। षोडशकारण व्रत के कारण हमने भादों भर के लिए शेष रसों के साथ दूध का भी त्याग किया था। हमें संजद शब्द का जरा भी विकल्प नहीं है। दुनिया भर की बातों का विचार करने से क्या प्रयोजन है ? लिखने वाले स्त्री को संजद तथा तिर्यंचों, नारकियों को भी संजद लिखते रहे, तो भी हमें उसकी चिंता नहीं है। हमें जो कहना था, सो कह दिया, अब हम बार-बार इसमें नहीं पड़ते हैं।" इससे उनकी अद्भुत वीतरागता पर प्रकाश पड़ता है। प्रतिष्ठा ग्रंथों में बहुभाग लोप
पुनः महाराज ने कहा- “संजद शब्द न रहने से क्या सिद्धान्त का लोप हो गया ? प्रतिष्ठा ग्रन्थों का बहुत-सा भाग काट करके नवीन मनोनीत ग्रन्थ के आधार पर प्रतिष्ठा का कार्य तुम्हारे तरफ किया जाता है। ग्रन्थ का ग्रन्थ काट डाला जाय, किन्तु तुम पंडित लोग इस विषय में अब तक क्यों चुप बैठे रहे ? आश्चर्य है कि तीन अक्षर के न रखे जाने पर तो दुनिया भर में हल्ला मचाया गया, किन्तु ग्रन्थ का ग्रन्थ काटकर प्रतिष्ठा जैसे महान् कार्य की सप्राणता में क्षति पहुँचाते देखकर भी आप लोग चुप बैठे रहे?"
आचार्य महाराज ने कहा था-"विवेकपूर्वक कार्य करना चाहिये।" आत्मध्यान का अधिकारी
इस सम्बन्ध में महाराज ने बड़े अनुभव की बात कही थी-"आत्मा का ध्यान निकट संसारी जीव के ही होता है। जिसका भव भ्रमण अधिक शेष है, उससे ऐसा ध्यान नहीं बनेगा।" जिन प्रभाव की महिमा
प्रश्न- जिन भगवान् का नाम, भाव को बिना समझे भी जपने से क्या जीव के दुःख दूर होते हैं? यदि जिनेन्द्र गुणस्मरण से कष्टों का निवारण होता है, तो इसका क्या कारण है ?
उत्तर- जिस प्रकार अग्नि के आने से नवनीत द्रवीभूत हो जाता है, उसी प्रकार वीतराग भगवान् के नाम के प्रभाव से संकटों का समुदाय भी दूर होता है। जिनेन्द्र भगवान् एक प्रकार से अग्नि हैं, क्योंकि उनके द्वारा कर्मो का दाह किया जाता है।
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