________________
४०३
चारित्र चक्रवर्ती होंगे। यदि निर्ग्रन्थ ने बंध किया, तो ज्ञान और मोक्ष रूप दो ही कल्याणक हो सकेंगे। इस अपेक्षा से सोचा जाय, तो वे सभी भाग्यशाली हो जाते हैं, जिन्होंने ऐसी प्रवर्धमान पुण्यशाली आत्मा के दर्शनादि का लाभ लिया हो। सबसे बड़ा भाग्य तो उनका है, जो गुरुदेव के उपदेशानुसार पुण्य जीवन व्यतीत करते हुए जन्म को सफल कर रहे हैं। देय पर्याय की कथा __ औदारिक शरीर परित्याग के अंतर्मुहूर्त के भीतर ही उनका वैक्रियिक शरीर परिपूर्ण हो गया और वे उपवाद शय्या से उठ गए। लगभग ७ बजकर ३५ मिनिट पर उनका दिव्य शरीर परिपूर्ण हो गया। उस समय उन्होंने विचार किया होगा कि यह आनन्द और वैभव की सामग्री यहाँ कैसे आ गई ? अवधिज्ञान से उनको ज्ञात हुआ होगा कि मैंने कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर यम सल्लेखनापूर्वक अपने शरीर का संयम सहित त्याग किया था उससे मुझे यह देव पर्याय प्राप्त हुई है। इस ज्ञान के पश्चात् वे आनंदपूर्ण वाद्यध्वनि तथा जयघोष सुनते हुए सरोवर में स्नान करते हैं और आनन्दपूर्वक जिन भगवान् की अकृत्रिम रत्नमय प्रतिमाओं के दर्शन, अभिषेक तथा पूजन में मग्न हो जाते हैं। आगम का कथन
तिलोयपण्णत्ति (आठवाँ अधिकार, गाथा २-५-८२ से ५८४ तक) में लिखा है कि-"ये देव तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और चामरादि से सुन्दर प्रतिमाओं के आगे जय-जय शब्द को करते हैं। उक्त देव भक्तियुक्त मन से सहित होकर सैकड़ों स्तुतियों के द्वारा जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुति करके पश्चात् उनका अभिषेक आरम्भ करते हैं।" ___ "उक्त देव क्षीर समुद्र के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्णकलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं।" अब तक महाराज प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक देखा करते थे किन्तु वे सुरराज बनकर रत्नबिम्बों का स्वयं अभिषेक कर रहे हैं, ऐसा उस समय प्रतीत होता था। तिलोयपण्णत्ति के ये शब्द भी महत्वपूर्ण हैं। __२“सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय के निमित्त सदा मन में अतिशः भक्ति से सहित होकर
१. थोदूण थुदि सएहि जिणिदपडिमाओ भत्तिभरिदमणा ।।
एदाणं अभिसेए तत्तो कुव्वंति पारंभं ॥५८३ ॥ (ति.प.)
यह अभिषेक जिन प्रतिमा का है शास्त्र में पंच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा, जिनामन्दिर ये नव देवता कहे हैं । अरहंत भगवान और प्रतिमा की भिन्न-भिन्न रूप में परिगणना की जाती है।
सम्मादिट्ठी देवा पूजा कुव्वंति विणवराण सदा । कम्मक्खवणणिमित्तं जिणवर भत्तीए भरिदमणा ॥५८८ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org