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सल्लेखना
४०४ जिनेन्द्रों की पूजा करते हैं। यहाँ कम्मक्खणिमित्तं' शब्द ध्यान देने योग्य है। पूजा से महान् पुण्य बंध होता है तथा कर्मक्षय भी होता है। रत्नकरंडश्रावकाचार में कहा है कि पूजा कामदुहि कामदाहिनी' है। एक कारण से अनेक कार्य होते हैं।
“मिथ्यादृष्टिदेव अन्य देवों के संबोधन से ये कुलदेवता हैं, ऐसा मानकर नित्यजिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। ति.प., ८- ५८६ ।।" दिव्य जीवन
महापुराण में कहा हैं- महाबल की समाधि के उपरान्त ललितांग देव रुप में उत्पत्ति हुई थी। उस कथन के प्रकाश में आचार्य महाराज के विषय में हम अपने मनोमंदिर में कल्पना का भव्य चित्र खींच सकते हैं-"श्रीप्रभ विमान में उपपाद शय्या पर (आचार्यश्री के जीव) देव का जन्म हुआ होगा। मेघ रहित आकाश में श्वेत बादलों सहित बिजली की तरह उपपाद शय्या पर शीघ्र ही वैक्रियिक शरीर से शोभायमान हुए होंगे। अंतर्मुहूर्त में ही यौवनपूर्ण, सुलक्षण-सम्पन्न तरुण के समान वे उपपाद शय्या से उठे होंगे। दैदीप्यमान कुंडल, केयूर, मुकुट, बाजूबंद आदि आभूषण पहिने हुए, माला सहित, उत्तम वस्त्रों को धारण कर वेशोभायमान हुए होंगे। उनके नेत्र टिमकार रहित होंगे। उस समय कल्पवृक्षों द्वारा पुष्पों की स्वयमेव वर्षा हुई होगी। दुंदुभि ध्वनि हुई होगी। सुर समुदाय ने आकर प्रणाम किया होगा। उस समय उस देव ने चकित हो सोचा होगा-“मैं कौन हूँ, ये सब कौन हैं ? मैं कहां से आया?" यह शय्यातल किसका है ?" तत्काल भवप्रत्यय अवधिज्ञान उत्पन्न हो ज्ञात हुआ होगा कि
अये तपः फलं दिव्यम् अयं स्वर्गों महाद्युतिः।
इमे देवास्समुत्सर्पद्-देहोद्योता: प्रणामिनः ॥५-२६७॥ अहो ! यह हमारे तप का मनोहर फल है। यह दैदीप्यमान स्थल स्वर्ग हैं। ये प्रणाम करते हुए दैदीप्यमान शरीर वाले देवता लोग हैं। इतने में देवतागण ने स्तुति करते हुए कहा होगा
प्रतीच्छ प्रथम नाथ सज्जं मज्जन-मंगलम् ।
तत: पूजा जिनेन्द्राणां कुरु पुण्यानुबंधिनीम् ॥५-२७३।। हे नाथ ! स्नान की सामग्री तैयार है। पहिले मंगल-स्नान कीजिए। इसके अनंतर पुण्यानुबंधिनी जिनेन्द्र भगवान् की पूजा कीजिए।
इसी प्रकार का परिणमन उस तपस्वी जीव का देव पर्याय में हुआ होगा, जिसका छह बजकर पचास मिनिट पर १८ सितम्बर, सन् १९५५ के प्रभात में कुंथलगिरि पर देहान्त हुआ था, जिसकी आचार्य शांतिसागर महाराज कहकर लोग पूजा करते थे। सच्चा देहान्त मोक्ष में होता है। यहाँ औदारिक देह का अन्त हुआ था तो वैक्रियक देह की
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