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आगम
३१६ जैसे प्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय होने पर ही महाव्रत रूप आत्म-विशुद्धि प्राप्त होती है, किन्तु इस कषाय के उदयभाव के लिये द्रव्य पुरुष वेदी रूप सामग्री का होना आवश्यक है। उच्च कुल में जन्म लेना भी आवश्यक है। यह सामग्री पूर्व कर्म के आधीन है। आज का पौरुष आगामी देव का रूप धारण करता है। अतएव सम्यक्त्व की उपलब्धि में आचार्य शांतिसागर ने जो दैव को कारण बताया था, वह युक्ति, अनुभव तथा आगम से समर्थित है। संयम की पौरुष-साध्यता
इस संबंध में यह बात विशेष विचारणीय है कि सम्यक्त्व तो दैवाधीन है और चारित्र पुरुषार्थ के आधीन। इस सिद्धांत के विपरीत यदि सम्यक्त्व को पौरुष के आधीन मानकर प्रयत्न किया जाय और चारित्र को पुरुषार्थ के अधीन न मानकर दैव के आश्रित छोड़ दिया जाय, तो इसका ऐसा ही विपरीत फल होगा, जैसे शरीर में लगाने के विष को पी लिया जाय, और पीने की औषधि का शरीर में लेप कर दिया जाय। इससे जैसे नीरोगता का लाभ न हो, उल्टे संकट की वृद्धि होती है, इसी प्रकार प्रयत्न-साध्य संयम को स्वयं प्राप्तव्य समझ उसके विषय में परवाह नहीं करने से और अपने पारुष की पहुंच से परे सम्यक्त्व के लिये प्रयत्न करने वाले व्यक्ति का वास्तविक कल्याण नहीं होता है। निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे जाने वाले की कामना कैसे पूर्ण होगी ? अत: पौरुषसाध्य संयम तथा व्रताचरण के विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
संयमरूपी वृक्ष मानव-जीवनरूपी भूमि में ही लगता है। अन्य पर्यायों में वह वृक्ष जमता नहीं है। मनुष्य-भव की प्राप्ति दुर्लभ है। अत: उसे प्राप्त करके उसका सार व्रत धारण करना श्रेयस्कर है। चारित्र के सन्मुख होने से जीव विषयभोगों के विमुख स्वयं बनता है, इससे विषयों की लंपटता दूर होती है तथा जीव ऐसे दैव का निर्माण करता है, ऐसा भाग्य बनाता है- जिससे इसे सुख और शांति का लाभ सदा हो। दैव कोई आकाश से टपकने वाली वस्तु नहीं है। आज के पौरुष द्वारा किया गया जो कार्य है, उससे कर्मों का बंध होता है, आगामी जीवन में आज के पौरुष का फल दैव संज्ञा को प्राप्त करता है। आज समुद्र में पड़ती हुई सूर्य की उष्ण किरणें उस जल को वाष्प रूप में बदलकर कल मेघ संज्ञा को प्राप्त कराती है, वस्तुत: जल ही मेघरूप परिणत हुआ है, इसी प्रकार का बुद्धिपूर्वक किया गया हमारा कार्य आगे जाकर उदयकाल में दैव रूप से कहा जाता है। अत: हमारे पौरुष की पहुँच के परे रहने वाले सम्यक्त्व के पीछे दौड़ना ऐसा ही है, जैसे नाभि में कस्तूरी को न जानने वाले हरिण का सुदामा के मूल स्रोत के अन्वेषण निमित्त आसपास खोज का कार्य करना है।
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