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आगम
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प्रति है, जो आचार्य महाराज के सुयोग्य शिष्य मुनि १०८ धर्मसागर महाराज ने गुरुदेव के स्वाध्याय के निमित्त लिखी थी।
मन में यह इच्छा हुई कि गुरुदेव से पूछूं आपके जीवन पर किन ग्रंथों का प्रभाव पड़ा जिससे पता चलेगा कि किस महामुनि की वाणी ने इस पवित्र जीवन को आलोकित किया है। मैंने पूछा, “महाराज ! भगवान् की वाणी होने के कारण सभी आगम ग्रंथ अच्छे हैं, फिर भी कौन से शास्त्र आपको विशेषकर आनंदप्रद मालूम पड़ते हैं ? "
महाराज ने कहा, “अब हमें द्रव्यानुयोग के शास्त्र अच्छे लगते हैं।"
मैंने पूछा, “महाराज ! प्रारंभ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथों ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया ?
किन ग्रंथों का प्रभाव पड़ा
महाराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बाँचा करते थे । हिन्दी रत्नकरंड श्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे । इससे मन को बड़ी शांति मिलती थी । आत्मानुशासन पढ़ने से मन में वैराग्य भाव बढ़ता था । इसमें वैराग्य तथा स्त्रीसुख से विरक्ति का अच्छा वर्णन है। इससे हमारा मन त्याग की ओर बढ़ता था। इरादा १७ - १८ वर्ष की अवस्था से ही मुनि बनने का था । "
महाराज ने यह भी बताया कि आत्मानुशासन की चर्चा अपने श्रेष्ठ सत्यव्रती मित्र रुद्रप्पा नामक लिंगायतबंधु से किया करते थे । इन दोनों महापुरुषों का परस्पर में तत्त्व विचार चला करता था । महाराज ने कहा था कि " आत्मानुशासन की कथा रुद्रप्पा को बड़ी प्रिय लगती थी । " पथ प्रदर्शक
महाराज ने यह भी कहा, "शास्त्रों में स्वयं कल्याण नहीं है । वे तो कल्याण के पथप्रदर्शक हैं। देखो ! सड़क पर कहीं खम्भा गड़ा रहता है, वह मार्गदर्शन कराता है। इष्ट स्थान पर जाने को तुम्हें पैर बढ़ाना होगा। वासनाओं की दासता का त्याग ही कल्याणजनक है।'
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महान् अनुभवी ज्ञाता एवं सुलझी हुई विद्वतता
एक दिन महाराज कहते थे कि "हम प्रतिदिन कम से कम ४० या ५० पृष्ठों का स्वाध्याय करते हैं ।" धवलादि सिद्धांत ग्रंथों का बहुत सुन्दर अभ्यास महाराज ने किया था। अपनी असाधारण स्मृति तथा तर्कणा के बल पर वे अनेक शंकाओं उत्पन्न करके उनका सुन्दर समाधान करते थे । - दिगम्बर दीक्षा, पृष्ठ १०७
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