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चारित्र चक्रवर्ती जुलाई को प्रभात काल में आचार्य महाराज की सेवा में पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे लोणंद (पूना) में अपना वर्षाकाल व्यतीत कर रहे थे। उनके समीप आने पर अनेक महत्त्वपूर्ण चर्चा करने का और महाराज के अनुभव प्राप्त करने का प्रसंग मिला। हमारा विचार महाराज के ज्येष्ठ बंधु १०८ वर्धमानसागर मुनिराज के दर्शनार्थ जाने का हो रहा था। अलौकिक अनासक्ति हमने पूछा- “महाराज ! वर्धमान स्वामी ने कहाँ चातुर्मास किया है।" महाराज ने कहा- "हमें नहीं मालूम।"
दूसरे भाईयों ने बताया कि वे किनीग्राम कोल्हापुर में विराजमान हैं। उस समय आचार्य महाराज की अलौकिक वृत्ति का पता लगा। यथार्थ में जो आगम में, मुनिनाम् अलौकिकी वृत्तिः' कहा है, उसका मर्म ज्ञात हुआ कि इन महात्माओं को दुनिया के बारे में परिचय प्राप्त करने की तनिक भी इच्छा नहीं होती। अन्तरंग-बहिरंग त्यागी मुनीश्वर मुख्यतया अपना मन आत्मा की ओर केन्द्रित रखते हैं। बाहरी बातों से उनका क्या प्रयोजन ? आत्मा के वैभव को देखने वाले तथा स्वानुभूति के मधुर रसपान में निमग्न रहने वाले मुनीन्द्रों को बाह्य बातों के विषय में जानकारी प्राप्त करना क्यों अच्छा लगेगा?
इस प्रसंग ने यह स्पष्ट कर दिया, कि वे जगत् के जाल से कितने दूर है। वास्तव में उनके शरीर के समान उनका अन्त:करण भी दिगम्बर है। केवल बाह्य नग्नता का कोई महत्त्व नहीं है। महाराज ने कहा था केवल-“नग्नता महत्वपूर्ण नहीं हैं, बन्दर भी नग्न है, पशु भी नग्न है। मनुष्य में नग्नता के साथ विशेष गुण पाये जाते हैं, इसलिए उसका दिगम्बरत्व पूज्यनीय होता है।" सर्व सौख्यप्रदायी धर्म
जैनधर्म के विषय में उन्होंने कहा था-“यह धर्म अत्यन्त निरुपद्रवी है। इसमें एक इन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों पर समता तथा दया का भाव पाया जाता है। दूसरों को कष्ट न देना इस धर्म का मुख्य लक्ष्य है।" धर्म के क्षेत्र में अकर्मण्यता ठीक नहीं है ।
आज के युग में यह कहा जाता है कि-"धर्म का पालन कठिन है। यह ठीक है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म को बिलकुल भुला दिया जाय। अगर पूर्णरूप से उसका पालन नहीं होता है, तो जितनी शक्ति है उतना तो पालन करो, किन्तु जितना पालन करते हो उसे अच्छी तरह से पालो। अकर्मण्य बनकर चुपचाप बैठना ठीक नहीं है और न स्वछंद बनने में ही भलाई है। शक्ति को न छुपाकर इस धर्म का पालन करना प्रत्येक समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है।"
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