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सल्लेखना
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tual level) पर तो प्रत्येक विचारक के चित्त में जँच जाता है, किन्तु अनुभूति की दृष्टि से जब तक सच्चा सम्यग्दर्शन अन्त:करण में आविर्भूत नहीं होता है, और चारित्रमोह, मद नहीं होता है, तब तक इस जीव की प्रवृत्ति नहीं होती है। शास्त्र में इस कलिकाल में सम्यक्त्व की संख्या दो चार कही है। यह कथन ऐसी आत्माओं को लक्ष्य करके ही कहा है। सम्यक्त्व की बातें करने वाले हजारों मिल जाएँगे। बातें बनाने में क्या कुछ लगता है ?
सल्लेखना का निश्चय
सल्लेखना करने का निश्चय उन्होंने गजपंथा में ही सन् १९५१ में किया था; किन्तु यम-सल्लेखना को कार्यरूपता कुंथलगिरि में प्राप्त हुई थी । महाराज ने सन् १९५२ में बारामती चातुर्मास के समय पर्यूषण में मुझसे कहा था कि- "हमने गजपंथा में द्वादशवर्ष वाली सल्लेखना का उत्कृष्ट नियम ले लिया है। अभी तक हमने यह बात जाहिर नहीं की थी। तुमसे कह रहे हैं। इसे तुम दूसरों से भी कहना चाहो, तो कह सकते हो ।” इसके बाद से महाराज की संयम साधना, उपवासादि बड़े उग्र रूप से हो चले थे ।
कुंथलगिरि चातुर्मास
सन् १९५३ में अर्थात् सल्लेखना से दो वर्ष पूर्व कुंथलगिरि में उनका चातुर्मास था, तब उनके उपवास बृहत् रूप में चल रहे थे। मैं व्रतों में पहुँचा, तो क्या देखता हूँ कि पंचमी से महाराज ने पाँच दिन का मौन और पंच उपवास का नियम कर लिया है। मैंने महाराज से कहा - " आपके चरणों में लाभ लेने की लालसा से भारत के बड़े-बड़े स्थानों के निमंत्रण को छोड़कर आपकी सेवा में सदा की भाँति आया हूँ । आपका मौन देखकर में चकित - सा हो गया । कम-से-कम धर्मशास्त्र की चर्चा के लिए तो मौन का बन्धन न हो। "
पाँच दिन पश्चात् महाराज ने आहार किया और पुन: पाँच उपवास की प्रतिज्ञा कर ली; किन्तु इस समय उन्होंने मौन नहीं लिया। महाराज बोले- "हमने सोचा, पंडित, इतनी दूर से हमारे पास आया है। तुम्हारा ख्याल करके हमने मौन नहीं लिया ।"
मैंने उनके पावन चरणों को प्रणाम किया और कहा - "महाराज ! आपने बड़ी दया की। इससे शेष व्रत के काल में आपके अमूल्य अनुभवों का लाभ सबको मिल सकेगा।" महाराज ने अपनी तपस्या का कारण समाधिमरण की तैयारी बताया था। इसके पश्चात् मैंने 'भगवती आराधना' ग्रंथ को ध्यानपूर्वक पढ़ा, तब ज्ञात हुआ, कि आचार्य महाराज की नैसर्गिक प्रवृत्ति पूर्णतया शास्त्रसंगत रही थी। उनकी चर्चा को देखकर शास्त्र कठिन प्रश्नों का समाधान प्राप्त होता था ।
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