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सल्लेखना सामग्री के अभाव में शक्ति तथा सामर्थ्यरहित हो चुका था, किन्तु अनन्तशक्तिपुञ्ज आत्मा की सहायता उस शरीर को मिलती थी, इससे ही वह टिका हुआ था। और आत्मदेव की आराधना में सहायता करता था।
सल्लेखना के ३० वें उपवास के लगभग महाराज ने मंदिर जाकर भगवान् के दर्शन कर अभिषेक देखा। अन्तिम क्षण के पूर्व में जिनेन्द्र देव के पंचामृत अभिषेक के गंधोदक को भक्तिपूर्वक ग्रहण किया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि उन आगमप्राण साधुराज की दृष्टि में पंचामृत अभिषेक का अवर्णनीय मूल्य था। इधर श्रेष्ठ समाधि धारणरूप निश्चय दृष्टि और इधर जिनेन्द्र भक्ति आदि रूप व्यवहार दृष्टि द्वारा आचार्य महाराज की जीवनी अनेकांत भाव को घोषित करती थी।
किन्हीं ने यह धारणा बना ली है कि जिनेन्द्र का अभिषेक जैन संस्कृति के प्रतिकूल है। उन्हें आगम को देखना चाहिए। त्रिलोकसार में लिखा है कि स्वर्ग में जन्मधारण करने के उपरान्त सम्यक्त्वी देव जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक और पूजा करते हैं-'जिणाभिसेयं पूजं कुव्वतिं सद्दिट्ठी' (५५२)। ऐसी आगम की देशना के विरुद्ध प्रचार करके समाज का अहित करते हुए उन शास्त्रियों को संकोच नहीं होता । तिलोयपण्णत्ति में भी अभिषेक का कथन है कि नंदीश्वर द्वीप में जाकर देवेन्द्र महान् विभूति के साथ सुवर्णकलशों से भरे सुगन्धित निर्मल जलसे भगवान् का अभिषेक करते हैं (५-१०४)। भगवान् बाहुबली का महाभिषेक भी स्मरण योग्य है। क्षत्रचूड़ामणि में लिखा है कि जीवंधर स्वामी ने राजपुरी के जिनालय में अभिषेक हेतु गमन किया था (१०-४१)।
उपरोक्त कथन के सिवाय महर्षि पूज्यपाद आदि के ग्रंथों में क्षीरादि से भी अभिषेक का वर्णन आता है। आगम प्राण व्यक्ति को शास्त्रानुसार आचरण करना चाहिए। यदि अभिषेक आगम विरुद्ध होता, तो आचार्य महाराज सल्लेखना काल में उसे देखने में कभी भी प्रवृत्ति न करते। अत: मिथ्याप्रचार से भ्रम में नही पड़ना चाहिए। शिक्षाग्रहण
आज अपने आपको परम आध्यात्मिक समझने वाले व्यक्तियों को आचार्यश्री के जीवनरूपी मानस्तम्भ के द्वारा अपना अध्यात्मिक ज्ञान का अहंकार दूर करना श्रेयस्कर है। भले आदमी कम-से-कम इतना तो सोच सकते हैं कि जब साधुशिरोमणि शांतिसागर महाराज सदृश सत्पुरुष को जिन-दर्शनादि द्वारा आत्मशुद्धि में सहायता प्राप्त होती थी और इसलिए जीवन भर इन मंगल-प्रवृत्तियों का उन्होंने परित्याग नहीं किया, तब आतं, रौद्रध्यान में निमग्न रहने वाला साधारण श्रेणी का व्यक्ति, जो प्राय: आरम्भ और विषयों की सेवा में काल व्यतीत किया करता है, यदि जिन-दर्शन पूजा आदि व्यवहार-धर्म छोड़ता है अथवा उसका तिरस्कार करता है तो, आगम के प्रकाश में वह अपने उत्कर्ष
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