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चारित्र चक्रवर्ती
नहीं थी। महाराज की क्रियाएँ अन्त तक आगम के अनुसार ही रही हैं। कोई सोच सकता है कि वे बैठे-बैठे कुटी के भीतर जल ले सकते थे, किन्तु ऐसी बात साधुओं के शिरोमणि शांतिसागर महाराज के विषय में नहीं सोचना चाहिए। डरकर या घबड़ाकर जिनेन्द्र की वाणी के विरुद्ध प्रवृत्ति करना उनके जीवन में तो क्या स्वप्न में भी नहीं पाया गया ।
ग्रहण करने के लिए वे उसी प्रकार शरीर शुद्धि करने जाते थे, जैसे समाधि के पूर्व में जाया करते थे । वे पूर्ववत् ही नवधा भक्ति होने के बाद खड़े-खड़े अंजुलि में उष्ण जल लेते थे। शरीर इतना अशक्त हो गया था कि कम से कम दस मिनिट पर्यन्त शारीरिक श्रम के पश्चात् शुद्ध जल की दो-चार अँजुलियाँ लेना असंभव हो गया था। जल लेने में उनकी जितनी शक्ति का व्यय होता था, उसका बहुत अल्प अंश जलग्रहण द्वारा उनको प्राप्त होता था। इन अनेक बातों को सोचकर उन विवेकमूर्ति मुनिनाथ ने आगे जल नहीं लिया। संघ भक्त शिरोमणि सेठ गेंदनमलजी ने सन् १९७१ के हमारे बंबई में पर्यूषण के समय उपरोक्त बात का समर्थन किया।
तेजपुञ्ज शरीर
उनका शरीर आत्मतेज का अद्भुत पुञ्ज दिखता था । ३० से भी अधिक उपवास होने पर देखने वालों को ऐसा लगता था, मानो महाराज ने ५-१० ही उपवास किये हो । उनके दर्शन से जड़वादी मानव के मन में आत्मबल की प्रतिष्ठा अंकित हुए बिना नहीं रहती थी ।
देशभूषण - कुलभूषण भगवान् के अभिषेक का जब उन्होंने अंतिम बार दर्शन किया था, उस दिन शुभोदय से महाराज के ठीक पीछे मुझे खड़े होने का सौभाग्य मिला था ।
मैं महाराज के सम्पूर्ण शरीर को ध्यान से देख रहा था । उनके शरीर के तेज की दूसरों के शरीर से तुलना करता था । तब उनकी देह विशेष दीप्तियुक्त लगती थी । मुख मण्डल पर तो आत्मतेज की ऐसी ही आभा दिखती थी, जिस प्रकार सूर्योदय के पूर्व प्राची दिशा में विशेष प्रकाश दिखता है । उनके हाथ, पैर, वक्ष:स्थल उस लंबे उपवास के अनुरूप क्षीण नहीं लगते थे, फिर भी दो माह से महान् तपस्या के कारण क्षीणतायुक्त शरीर और उस पर यह महान् सल्लेखना का भार, ये तब अद्भुत सामग्री का विचार, आत्म-शक्ति और उस तेज को स्पष्ट करते थे ।
अभिषेक दर्शन
मैंने देखा, कि महाराज एकाग्रचित्त हो जिनेन्द्र भगवान की छवि को ही देखते थे। इधर-उधर उनकी निगाह नहीं पड़ती थी । मुख से थके माँदे- व्यक्ति के समान शब्द नहीं निकलता था । तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाय, तो कहना होगा कि शरीर तो पोषक
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