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चारित्र चक्रवर्ती प्रकाशन तथा प्रचार की इच्छा व्यक्त की थी। जगत् जैन धर्म को जानना चाहता है।
कई लोग बिना आगा-पीछा सोच जघन्य श्रेणी का साहित्य छाप कर उसे बाँटने में धर्म प्रभावना की कल्पना करते हैं। निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने वाले इस सुझाव से सहमत होंगे कि जो भी धर्म प्रभावना करने वाला साहित्य प्रकाश में आवे। उससे स्वार्थ पोषण का सम्बन्ध न हो। तत्त्वार्थराजवार्तिक में अकलंक स्वामी ने लिखा है कि जो शास्त्र को बेचकर अपना स्वार्थसिद्ध करना चाहते है, वे आगे वज्रमूर्ख बने बिना नरहेंगे। हमारा परम कर्तव्य है कि जीव को अनन्त कल्याण प्रदान करने वाली जिनवाणी को जन-जन की वाणी बनावें। जिनवाणी के द्वारा अंतरंग-बहिरंग समृद्धि प्राप्त होती है । ये शब्द ध्यान में रहना चाहिए। जो विशुद्ध मति इस जिनवाणी को अपने मन में धारण करता है वह सुरेन्द्र नरेन्द्र की सम्पत्ति को प्राप्त करता है। केवलज्ञान को भी प्राप्त करता है। धर्मप्रचार __ आचार्य महाराज की तीसरी बात बहुत महत्त्वपूर्ण है- “जैन धर्म का प्रचार करो।" आचार्य महाराज का कथन साम्प्रदायिकता के मोहवश नहीं था। वे जानते थे कि जैन धर्म की रत्नत्रयमयी धर्म देशना के प्रभाव से यह जीवन अनंत संसार के संताप से मुक्त होकर अविनाशी शांति को प्राप्त करके सिद्ध परमात्मा बनता है, इसलिए वे समस्त जीवों के कल्याण की भावना से समाज को कहते हैं- "जैन धर्म का प्रचार करो।" इस युग में एक आत्मा ने महाराज शांतिसागरजी के रूप में रत्नत्रय की आराधना तथा उज्ज्वल तपस्या द्वारा जो वीतराग शासन की प्रभावना की वह लाखों लोग न कर सकें। बड़े-बड़े दानी या विद्वान् भी न कर सके। सदाचार
इसका रहस्य यह है कि यदि धर्म की प्रभावना करने वाले व्यक्ति सदाचारसम्पन्न हों, सुश्रद्धासमलंकृत हों, अध्ययनशील हों तो उनकी वाणी आज के ज्ञानपिपासु, चिंतनप्रधान जगत् के मन पर प्रभाव डाल सकती है। आज धर्म प्रभावना के लिए उद्यत प्राय: ऐसे सत्पुरुषों के दर्शन होते हैं, जो श्रावक के कर्तव्यों, देवदर्शन, पूजन सदृश कार्यों से पूर्णतया विमुख रहते हैं असंयम का मुकुट उनके मस्तक पर शोभायमान रहता है। अभक्ष्य पदार्थों के सेवन करने की तथा उसे उचित सिद्ध करने की सिद्धहस्तता रहती है। ऐसों से धर्म की प्रभावना होती है, या तिरस्कार होता है, यह विवेक व्यक्ति अपने हृदय पर हाथ रखकर विचार कर सकता है।
कर्तव्य
सद्धर्म की प्रभावना तथा प्रचार के लिए तत्पर व्यक्ति को रत्नत्रय समलंकृत होना
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