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प्रकीर्णक
३४५ ठिकाने आई और तब यह दिखा कि अब इतना खतरा नहीं है। उस भीषण परिस्थिति में आचार्य महाराज की दृढ़ता में तनिक भी अंतर नहीं पड़ा था। कठिन परिस्थिति में वज्र की भाँति दृढ़ रहना उनकी सर्वदा विशेषता रही है। विधिमार्ग का उपदेश
शास्त्रों में धर्म का कथन कहीं उत्सर्ग मार्ग से किया है और कहीं अपवाद मार्ग का निरुपण किया जाता है। इस विषय में आचार्य महाराज ने कहा था-"हम अपने उपदेश में विधिमार्ग, उत्सर्गमार्ग का कथन करते हैं हम अपवाद का कथन नहीं करते हैं।" परमार्थ दृष्टि
तत्त्वों को निरन्तर परिशीलन करते रहने से उनकी आत्मा बहुत सुसंस्कृत हो गई थी। अत: वे परमार्थ दृष्टि के प्रकाश में अपनी आत्मा को चतुर्गति के चक्र में दुःखी नहीं मानते हैं। आचार्य शुभचन्द्र स्वामी के शब्दों में इसे कर्मों का खेल ही मानते हैं। अत: वे कहने लगे- “हमें चारों गतियाँ समान हैं। जैसा हमारा कर्म होगा, उसी प्रकार की हमारी गति होगी। हमें नरक पर्याय में पहुँचने का भी भय नहीं है। नरक गति के दुःख शरीर तक ही सीमित हैं। उससे हमारी आत्मा को क्या होगा? शरीर और आत्मा एक नहीं है।" निश्चय पर श्रद्धा ___ महाराज ने कहा था-“हम व्यवहार-धर्म का पालन करते हैं, भगवान् का दर्शन करते हैं, अभिषेक देखते हैं, प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करते हैं, सभी क्रियाओं का यथाविधि पालन करते हैं, किन्तु हमारी अंतरंग श्रद्धा निश्चय पर है। जिस समय जो भवितव्य है, उसे कोई भी अन्यथा नहीं परिणमा सकेगा, किन्तु हमारा निश्चय का एकांत नहीं है, दूसरों के दुःख दूर करने का विचार करुणावश है।" पूर्व के मुनि
मेरे प्रश्न के उत्तर में महाराज ने बताया कि-"उनके मुनि जीवन के पूर्व में वे दस-बारह मुनियों को देख चुके हैं। उस समय मुनि जीवन की निर्दोष परिपालना नहीं होती थी। उपाध्याय द्वारा श्रावक के घर में मुनिराज के आहार का निश्चय होने पर दूसरे दिन वह मुनिराज को उस घर पर ले जाता था और वहाँ आहार होता था। उस समय घर में निरन्तर घंटा बजता रहता था, जिससे अयोग्य शब्दादि के सुनने से अंतराय नहीं होवे। वे मुनि आहार के समय पूर्ण दिगम्बर रहते थे। अन्य समय में वे खण्डवस्त्र धारण करते थे।" आगमानुकूल आचरण यह बात सुनकर मैंने कहा, “महाराज, आपने भी कुछ समय तक ऐसी ही वृत्ति धारण
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