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प्रकीर्णक उस समय उनके समीप बैठने में ऐसा लगता था, मानों हम चतुर्थकालीन ऋषिराज के पाद-पद्यों के पास बैठे हों।
अठाहरवें दिन संघपति गेंदनमलजी, दाडिमचन्दजी, मोतीलालजी जवेरी बम्बई वालों के यहाँ वे खड़े-खड़े करपात्र में यथाविधि आहार ले रहे थे। उस दिन पेय वस्तु का विशेष भोजन हुआथा। गले की नली शुष्क हो गई थी, अत: एक-एक घुट को बहुत धीरे-धीरे वे निगल रहे थे। उस समय प्रत्येक दर्शक के अन्त:करण में यही बात आ रही थी कि इस पंचमकाल में हीन संहनन होते हुए भी वे मुनिराज चतुर्थकालीन पक्षाधिक उपवास करने वाले महान् तपस्वियों के समान नयनगोचर हो रहे हैं।
गुरु-भक्त नेमिसागर महाराज ने कहा-“उपवास शांति से हो गये, इसमें शांतिसागर महाराज का पवित्र आशीर्वाद ही था।" महाराज का दूरदर्शीपन
उस अवसर पर आचार्य महाराज ने कहा था-"नेमिसागर को उपवास देते समय हमारी भी इच्छा ऐसे उपवास की हुई थी, किन्तु वृद्धावस्था का विचार कर हमने ऐसा नहीं किया और दो उपवास के बाद आहार लेने का क्रम रखा।" __ यथार्थ में आचार्य महाराज का प्रत्येक कार्य दूरदर्शिता एवं विवेकपूर्ण होता है। विचित्र प्रश्न
इस प्रसंग पर आचार्य महाराज ने एक सुन्दर बात सुनाई थी, जयपुर चातुर्मास में बहुत लोगों ने व्रत-नियम लिए थे। कई ने दीक्षा ली थी। यह देखकर एक आदमी उनके पास आकर बोला-“महाराज ! यदि आपके उपदेश को मानकर सभी लोग मुनिपद धारण कर लेंगे तो उनकी सँभाल कैसे होगी। उनको आहार कौन देगा?" ___ महाराज ने कहा था-"भाई ! सभी आत्माओं में पवित्रता उत्पन्न नहीं होती है। फिर भी तुम तर्क द्वारा यह बात कहते हो, तो हमारा यह उत्तर है, कि यदि मुनि बनने पर किसी को आहार न मिले, तो इस बात की हम जमानत लेते हैं। देखें, ऐसा व्यक्ति कौन रहता है, जिसे मुनिपद धारण करने पर आहार का लाभ न मिलें।"
महाराज जैसे जमानत लेने को तैयार होते हैं, तब वे शंकाकार चुप हो गये। यहाँ तो महाराज ने जमानत देने की बात बताई थी। एक बार उन्होंने जमानत लेने की भी मधुर बात सुनाई थी। विनोद में धर्मसंरक्षण का रहस्य
पायसागरजी के दीक्षा के अंतरंग के भाव थे, किन्तु उनकी पूर्व स्वच्छंद प्रवृत्तियों को ही लक्ष्य-बिन्दु में रखने वाले लोग महाराज से कहते थे-“महाराज! ऐसे व्यक्ति को दीक्षा न
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