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चारित्र चक्रवर्ती अच्छा किया। बहुत अच्छा हुआ तुम आ गये। बहुत अच्छा किया।” इस प्रकार चार बार पूज्यश्री के शब्दों को सुनकर स्पष्ट हुआ कि उन श्रेष्ठ साधुराज के पवित्र अंत:करण में मेरे प्रति करुणापूर्ण स्थान अवश्य है। ___ मैंने कहा-“महाराज! श्रेष्ठ तपस्यारूप यमसमाधि का महान् निश्चय करके आपने जगत् को चमत्कृत कर दिया है। आपका अनुपम सौभाग्य है। इस समय मैं आपकी सेवार्थ आया हूँ। शास्त्र सुनाने की आज्ञा हो या स्तोत्र पढ़ने आदि का आदेश हो, तो मैं सेवा करने को तैयार हूँ।" पूर्ण स्वावलम्बी ___ महाराज बोले-“अब हमें शास्त्र नहीं चाहिए। जीवन भर सर्व शास्त्र सुने। खूब सुने, खूब पढ़े। इतने शास्त्र सुने कि कण्ठ भर चुका है। अब हमें शास्त्रों की जरूरत नहीं है। हमें आत्मा का चिन्तवन करना है। मैं इस विषय में स्वयं सावधान हूँ। हमें कोई भी सहायता नहीं चाहिए।" ___ महाराज की वीतराग भावपूर्ण वाणी को सुन मन बड़ा सन्तुष्ट हुआ । सचमुच में जिस महापुरुष के ये वाक्य हों 'शास्त्र हृदय में भरा है', उन्हें ग्रंथ के अवलम्बन की क्या आवश्यकता है ? उन्होंने शास्त्र पढ़कर उस रूप स्वयं का जीवन बनाया था। उनका जीवन ही शास्त्र सदृश था।
ता. २५ अगस्त को अष्टमी थी। मैंने पूछा, “महाराज ! नींद घंटा दो घंटा आती तो है न?
महाराज - “निद्रा तो अति अल्प है" आत्मा का ध्यान प्रश्न-“महाराज! आत्मध्यान का क्या हाल है ?"
महाराज - "आत्म-ध्यान सतत चालू आहे. (आत्मध्यान निरन्तर चलता है।)" वीरसागरजी को आचार्य पद का दान
ता. २६ शुक्रवार को आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। उसका प्रारूप आचार्यश्री के भावानुसार मैंने लिखा था। भट्टारक लक्ष्मीसेन जी, कोल्हापुर आदि के परामर्शानुसार उसमें यथोचित परिवर्तन हुआ।
अन्त में पुन: आचार्य महाराज को बाँचकर सुनाया, तब उन्होंने कुछ मार्मिक संशोधन कराए।
उनका एक वाक्य बड़ा विचारपूर्ण था-"हम स्वयं के संतोष से अपने प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य वीरसागर को आचार्य पद देते हैं।"
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